चाँदनी के अधूरे सपन की कथा
वादियों में अकेले सुमन की व्यथा
आज भी शब्द में ढल न पाई अगर
लेखनी का जनम फिर रहेगा वॄथा
इसलिये आओ अभिव्यक्तियों के कलश, भाव के नीर से आज हम तुम भरें
वर्त्तिका मैं बनूँ, तीलियाँ तुम बनो, ज्योति बन दूर छाया अंधेरा करें
वाक्य में अक्षरों के छुपे मध्य में
भावनाओं के निर्झर उमड़ते हुए
एक के बाद इक स्वप्न की क्यारियाँ
और गुंचे हज़ारों चटकते हुए
अश्रु जो छू गये, सुख के दुख के नयन
शब्द के बीच में आते जाते रहे
हैं परे रह गये दॄष्टि के कोण से
किन्तु अस्तित्व अपना जताते रहे
आओ हम शब्द की तूलिकायें लिये, इनकी रातों में चित्रित सवेरा करें
वर्तिका मैं बनूँ, तूलिका तुम बनो, ज्योति बन दूर छाया अंधेरा करें
स्वप्न जो आँख में आ तड़पते रहे
स्वर, न छू पाये जो थरथराते अधर
एक पाथेय जो भोर में न सजा
एक पग के परस को तरसती डगर
एक आलाव दरवेश की राह में
नीड़ जिसकी टँगी मोड़ पर है नजर
एक हथेली, लकीरों भरी छाओ जो
छोड़ जाती रही घर की दीवार पर
इनकी बेचैनियाँ आओ हम जान लें और हल साथ मिल कर चितेरा करें
चाँद तुम बन सको, मैं सितारे बनूँ , रात को आओ हम तुम उजेरा करें
स्वप्न से नैन के मध्य की दूरियाँ
फूल से दूर जितना सुवासित पवन
पायलों और झंकार के मध्य में
शून्य का एक विस्तॄत उमड़ता गगन
पीर का गीत से एक अनुबन्ध है
प्यास का जो बरसते हुए नीर से
इक शपथ जो कई जन्म के साथ की
या कि धारा का हो साथ ज्यों तीर से
आओ मिल कर इन्हें हम नये नाम दें, नाम जो अर्थ नूतन उकेरा करें
रश्मियां मैं बनूँ त्रुम दिवाकर बनो, आओ मिल कर नया इक सवेरा करें
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
नव वर्ष २०२४
नववर्ष 2024 दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...
-
प्यार के गीतों को सोच रहा हूँ आख़िर कब तक लिखूँ प्यार के इन गीतों को ये गुलाब चंपा और जूही, बेला गेंदा सब मुरझाये कचनारों के फूलों पर भी च...
-
हमने सिन्दूर में पत्थरों को रँगा मान्यता दी बिठा बरगदों के तले भोर, अभिषेक किरणों से करते रहे घी के दीपक रखे रोज संध्या ढले धूप अगरू की खुशब...
-
जाते जाते सितम्बर ने ठिठक कर पीछे मुड़ कर देखा और हौले से मुस्कुराया. मेरी दृष्टि में घुले हुये प्रश्नों को देख कर वह फिर से मुस्कुरा दिया ...
8 comments:
आओ मिल कर इन्हें हम नये नाम दें, नाम जो अर्थ नूतन उकेरा करें
रश्मियां मैं बनूँ तुम दिवाकर बनो, आओ मिल कर नया इक सवेरा करें
--बेहतरीन..लाजबाब!!
गजब का लय है ईस गीत मे । दिल करता है की एक साँस मे पुरा गीत पढ डालु ।
गीत मे भाव है । लेकिन विषय मे स्पष्टता का अभाव है । ईस कारण पाठक का अपना मानस ही प्रमुख बन जाता है । यह गीत की विशेषता है ।
atii sunder bhav , kavita nahin ek paati haen yae , sahii patey par pahuch jaaye to jeena kitana aasan ho jaye
इनकी बेचैनियाँ आओ हम जान लें और हल साथ मिल कर चितेरा करें
चाँद तुम बन सको, मैं सितारे बनूँ , रात को आओ हम तुम उजेरा करें
भाव पूर्ण रचना लगी यह आपकी राकेश जी
परिमार्जित भाषा,शिल्प की कसावट,प्रतीकों की सज्जता मनमोह लेती है.लगे कि दिनकर की उर्वशी पढ़ रहा हूँ. सौन्दर्यबोध,भाषा की नरमता ये हुनर कोई आपसे सीखे.एक और बात आप विषम परिस्थितियों में भी अपनी गरिमा नहीं छोड़ते और एक हम हैं कि जरा सी हेंचू हेंचू की आवाज़ पर हमें लोटते देर नहीं लगती.
हमेशा की तरह कमाल है भाई. आप को पढने के बाद कुछ देर तक और कुछ पढने को जी नहीं चाहता.
Rakesh Bhai
Sare sarthak shabd to aap ki jholi men hain main ab is rachna ki prashansha ke liye kahan se shabd khoj kar laun?
Aap ki lekhni ko barambaar naman.
Neeraj
मैने आपकी कविता एक डाक्टर मित्र को भेजी । उसने कहा की कविता अच्छी लगी, लेकिन कवि के भाव समझ मे नही आए । मैने कहा यही तो अच्छी बात है ईस कविता मेँ । मैने कहा :
" कवि के भाव तुम्हारे किसी काम के नही है । कविता पढ कर तुम्हारे अन्दर जो भाव उठते है वही महत्वपुर्ण है । कवि का काम तो सिर्फ तुम्हारे अन्दर कोई गहरा भाव खडा कर देना भर होता है । कवि के भाव यदि कविता पर हावी हो जाए या तुम्हारे अपने भाव का अतिक्रमण करने का प्रयास करे तो यह ठीक नही है ।
मै चाहता हु की कविता मुझे हवा उप्लब्ध कराए ताकि मेरे भाव उड सके मेरी अपनी यात्रा पर । नितांत अपनी यात्रा । पुरी आजादी और पुरी स्वतंत्रता । "
Post a Comment