शब्दों के झरने उंड़ेलती हैं कलमें
लेकिन कोई गीत नहीं बन पाता है
चन्दा का झूमर अम्बर के कानों में
घुली हुई सरगम कोयल के गानों में
चटक रही कलियों की पहली अंगड़ाई
टेर पपीहे की वंशी की तानों में
रश्मि ज्योत्सना की कंदीलों से लटकी
एक टोकरी धूप दुपहरी से अटकी
सन्ध्या की देहरी पर आकर सुस्ताती
एक नजर, पूरे दिन की भुली भटकी
लेकिन दीप न जल पाता संझवाती का
और अंधेरा पल पल घिरता आता है
खिंची हाथ पर आड़ी तिरछी रेखायें
और अर्थ जीवन के पल पल उलझायें
चौघड़ियों के फ़लादेश में बल खाते
नक्षत्रों से ताल मेल भी बिठलायें
लिखते विधि का लेख दुबारा, कर पूजा
मंदिर की चौखट पर शीश नवाते हैं
कल का सूरज रंगबिरंगी किरणों से
राह सजायेगा, यह आस लगाते हैं
लेकिन आधा लिखा पॄष्ठ इस किस्मत का
फिर से आधा लिखा हुआ रह जाता है
मन में पलतीं नित्य अधूरी आशायें
और बदलते नित्य, अर्थ, परिभाषायें
सूनेपन पर लगी टकटकी नजरों की
बनें दॄश्य, इससे पहल ही धुल जायें
खुले हाथ की मुट्ठी बँधती नहीं कभी
लेकिन संचय दिवास्वप्न बन रहता है
आज नहीं तो कल या फिर शायद परसों
पागल मन खुद को समझाता रहता है
लेकिन संवरा हुआ आंख का हर सपना
गिरे डाल से पत्ते सा उड़ जाता है
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3 comments:
इस पर क्या कहूँ...रात गये इतना उम्दा गीत सुन बस इत्मिनान से सो ही सकता हूँ कि वाकई गीत जिंदा है अभी. शुभ रात्रि.
मन में पलतीं नित्य अधूरी आशायें
और बदलते नित्य, अर्थ, परिभाषायें
सूनेपन पर लगी टकटकी नजरों की
बनें दॄष्य, इससे पहल ही धुल जायें
खुले हाथ की मुट्ठी बँधती नहीं कभी
लेकिन संचय दिवास्वप्न बन रहता है
बहुत खूब ..
कुछ ऐसा ही लिखा था मैंने भी ..
चाँद का झूमर पहने रात चली आती है
सितारों कि चुनरिया ख्वाबो को पहनाती है...
यह भाव कुछ अलग हैं ..
आपकी रचना बहुत अच्छी लगी ....खुले हाथ की मुठी बंधती नही ..
"लेकिन आधा लिखा पॄष्ठ इस किस्मत का
फिर से आधा लिखा हुआ रह जाता है"
bahut sunder
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