रंग में गेरुओं के रँगे चौक ने चूम जब दो लिए पग अलक्तक रँगे
देहरी को सुनाने लगे राग वह, पायलों की बजी रुनाझुनों में पगे
खिड़कियों से रहा झाँकता चन्द्रमा, घूंघटों की सुनहरी किनारी पकड़
प्रीत का एक मौसम घिरा झूमता, रह गए हैं सभी बस ठगे के ठगे
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नव वर्ष २०२४
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4 comments:
नमस्कार। आपकी यह रचना भी बेजोड़ है।
प्रीत का एक मौसम घिरा झूमता, रह गए हैं सभी बस ठगे के ठगे-- यह पंक्ति मेरे हृदय को हृदयान्वित कर गई।
रंग में गेरुओं के रँगे चौक ने चूम जब दो लिए पग अलक्तक रँगे
देहरी को सुनाने लगे राग वह, पायलों की बजी रुनाझुनों में पगे
बहुत सुंदर पायलों की बजी रुनाझुनो में पगे बेहद प्यारी लगी यह ...:)
बहुत प्यारी कता है। और उसमें ये लाइनें तो लाजवाब कर गयीं,
"प्रीत का एक मौसम घिरा झूमता, रह गए हैं सभी बस ठगे के ठगे"
बधाई।
इतना बेहतरीन पढ़कर हम भी रह गए हैं बस ठगे के ठगे. बहुत उम्दा.
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