नैन की झील में पड़ रहे बिम्ब में
चित्र आये हैं ऐसे संवरते हुए
थरथराती हुई उंगलियों से कोई
नाम कागज़ पे लिखता संभलते हुए
जो टँगीं हैं पलक की घनी झाड़ियों
पर हैं परछाईयां खो चुकी अर्थ भी
छटपटाती हुईं झूलने के लिये
थाम कर डोर कोई भी संदर्भ की
स्पर्श की आतुरा और बढ़ती हुईं
छू लें बिल्लौर सा झील का कैनवस
ज्ञात शायद न हो, भावना से रँगी
पर्त इस पर चढ़ी है रजत वर्क सी
याद का कोई आकर न कंकर गिरे
रंग रह जायें सारे बिखरते हुए
कांपते होंठ पर बात अटकी हुई
न कही जा रही, न ही बिसरे जरा
चित्र रेखाओं में इक उभरता हुआ
धुन्धमें डूब कर है कुहासों घिरा
एक पहचान के तार को खोजता
जोकि ईजिल की खूँटी से बाँधे उसे
ऒट से चिलमनों की रहा झाँकता
बन के जिज्ञासु, थोड़ा सा सहमा डरा
कोई लहरों पे सिन्दूर रंगता रहा
ढल रही शाम को चित्र करते हुए
है किसी एक आभास की सी छुअन
होती महसूस लेकिन दिखाई न दे
धमनियों में खनकती हुईं सरगमें
झनझनाती है लेकिन सुनाई न दे
मन के तालाब से धुल गये वस्त्र से,
भाव आतुर, टँगें शब्द की अलगनी
नैन लिखते हुए नैन के पत्र पर
बात वह जो किसी को सुनाई न दे
स्वप्न आकर खड़े हो रहे सामने
एक के बाद इक इक उभरते हुए
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4 comments:
क्या सपना है… इतनी पंक्तिबद्ध… :)
बहुत शानदार रचना… आपकी रचना
सराहना के लिए नहीं होती हैं इसमें
बहुत कुछ सीखने जैसा भी होता है…,
कांपते होंठ पर बात अटकी हुई
न कही जा रही, न ही बिसरे जरा
भावभीनी रचना !
कोई लहरों पे सिन्दूर रंगता रहा
ढल रही शाम को चित्र करते हुए
एक एक पंक्ति जीवन्त हो उट्ठी……बहुत सुन्दर रचना,बार बार पढ़ने का मन कर रहा है…।
राकेश जी, बहुत अच्छा लग रहा है, मन प्रसन्न हो गया है. भाव, उपमान, शब्दों का चयन, प्रस्तुति .... क्या कहूँ. कुल मिला कर .......... आनंदित हूँ... बधाई, इस रचना के लिए इस विश्वास के साथ कि भविष्य में आप इस आनंद का संचार बार बार करते रहेंगे.
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