संझवाती के दीपक को जब सत्ता सौंपी है सूरज ने
जाने क्यों मेरे अधरों पर नाम तुम्हारा आ जाता है
सुर का सहपाठी होकर तो रहा नहीं मेरा पागल मन
फिर भी उस क्षण जाने कैसे गीत तुम्हारे गा जाता है
गोधूलि से रँगे क्षितिज पर, उभरे हैं रंगों के खाके
सिन्दूरी सी पॄष्ठभूमि पर, चित्र सुरमई बाल निशा के
और तुम्हारी गंधों वाली छवि से अँजे हुए नयनों में
लगते हैं अँगड़ाई लेने. कुछ यायावर शरद विभा के
कुछ पल का ही साथ इस कदर संजीवित कर गया समय को
लगता है तुमसे मेरा अनगिनती जन्मों का नाता है
सुरभि यामिनी गंधा वाली वातायन पर आ हँसती है
अभिलाषा के पुष्प-गुच्छ की रंगत और नई होती है
जलतरंग की मादक धुन में ढल जाते हैं पाखी के स्वर
गुंजित होती चाप पदों की एक अकेली पगडंडी पर
निंदिया का रथ मेरे घर से ज्ञात मुझे है बहुत दूर है
लेकिन स्वप्न तुम्हारा रह रह, पाहुन बन बन कर आता है
पनघट के पथ से आवाज़ें, देती है पायल मतवाली
कंदीलें उड़ने लगती हैं, महकी हुई उमंगों वाली
नैन दीर्घाओं में टँकते, चित्र कई जाने पहचाने
ढली सांझ में घुलते जाकर यादों के बीहड़ वीराने
संध्या-वंदन को, आँजुर में भरा हुआ जल अभिमंत्रित हो
इससे पहले दर्पन बन कर चित्र तुम्हारा दिखलाता है
नीड़ पथिक के पग को अपनी ओर बुलाने लगता है जब
अलगोजे के स्वर पर कोई भोपा गाने लगता है जब
शयन-आरती को मंदिर में तत्पर होता कोई पुजारी
करने लगती नॄत्य अलावों में जब इक चंचल चिंगारी
तब खिड़की पर आकर रुकता हुआ हवा का हर इक झोंका
मुझको लगता है संदेशे सिर्फ़ तुम्हारे ही लाता है
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4 comments:
"निंदिया का रथ मेरे घर से ज्ञात मुझे है बहुत दूर है
लेकिन स्वप्न तुम्हारा रह रह, पाहुन बन बन कर आता है"
राकेश जी
लाजवाब रचना. हर शब्द और भाव बहुत खूबसूरत है आप की इस कविता में.
ढेरों बधाई.
ग़ज़ल पढने का शौक रखते हों तो मेरे ब्लॉग पर निमंत्रित हैं.
नीरज
सिन्दूरी सी पॄष्ठभूमि पर, चित्र सुरमई बाल निशा के
और तुम्हारी गंधों वाली छवि से अँजे हुए नयनों में
--- प्रकृति का सुन्दर रूप चित्रित हो गया और भाव तो जैसे शीतल सुगन्धित हवा के झोंके की तरह स्पर्श करता हुआ दिल में उतर गया.
राकेश जी,
जब भी कोई गीत दिल को छूता सा लगता है
मेरे होंठों पर बरबस नाम तुम्हारा आ जाता है
बहुत ही बेहतरीन और सुन्दर रचना है।बधाई स्वीकारें।
निंदिया का रथ मेरे घर से ज्ञात मुझे है बहुत दूर है
लेकिन स्वप्न तुम्हारा रह रह, पाहुन बन बन कर आता है
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