कुछ ऐसा भी हुआ लिखे जो गीत उन्हें न कोई पढ़ता
फिर ऐसे गीतों से मैं भी विलग न होता तो क्या करता
कुछ ऐसे हैं जोकि भूमिकाऒं से आगे बढ़े नहीं हैं
हालातों से घबरा कर बैठे हैं बिल्कुल लड़े नहीं हैं
छंदो के इक चक्रव्यूह को रहे तोड़ने में वे असफ़ल
था सोपान गगन तक जाता, लेकिन बिल्कुल चढ़े नहीं हैं
जो प्रयास से भी थे होकर विमुख रहे शब्दों में छुप कर
मैं ऐसे निष्प्राण भाव के पुंज सँजो कर भी क्या करता ?
वासी फूल नहीं सजते हैं, तुम्हें विदित पूजा की थाली
स्वप्न चाँद के नहीं देखतीं कॄष्ण पक्ष की रातें काली
बिखरे अक्षत फिर माथे का टीका जाकर नहीं चूमते
मुरझाई कलियों को रखता है सहेज कर कब तक माली
जो हर इक अनुग्रह से वंचित और उपेक्षित होकर बैठे
तुम्ही कहो कब तक उनको मैं अपने कंठ लगा कर रखता ?
गति तो चलती नहीं बाँध कर, अपने साथ मील के पत्थर
धारा, जिसको बहना है वह रुकती नहीं तटों से बँधकर
प्राची नहीं जकड़ कर रखती , आये द्वार रश्मि जो पहली
खो देता अस्तित्व हवा का झोंका अपना बहना रुककर
मैं जीवन के स्पंदन के संग जब चल दिया बना हमराही
फिर रचना के अवशेषों को कब तक बाँध साथ में रखता ?
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4 comments:
कुछ ऐसा भी हुआ लिखे जो गीत उन्हें न कोई पढ़ता
फिर ऐसे गीतों से मैं भी विलग न होता तो क्या करता
--यहाँ थोड़ी गलतफहमी हो गई लगती है. लोग पढ़ रहे हैं मगर टिप्पणी करने में कंजूसी करते हैं. आप विश्वास करें और चाहें तो स्टेटस काउन्टर लगा लें, पता चल जायेगा कि कितने लोग रोज आते हैं मगर समय या आत्मविश्वास के आभाव में बिना टिपियाये लौट जाते हैं.
आप बहुत उम्दा लिखते हैं. लोग दीवाने हैं. आप तो कम से कम ऐसा न कहें गीत सम्राट जी वरना हम तो खामखाँ मारे जायेंगे. :)
जारी रखें. शुभकामनायें.
ऎसा नहीं है जी कि आपको नहीं पढ़ा जाता.कम से कम मैं तो पढ़ता ही हूँ.पर कविता पर यदि गद्य में टिप्पणी दो तो मजा नहीं आता. और हम कविता में पैदल है. इसलिय़े टिप्पणी पर ना जायें और लिखते जायें.
वाह !खूब लिखा है आपने..
माता को प्यारे लगते वो शिशु जो थोडा धीरे चलते
गीतों को रखा होता, हम हाथ पकड उन से मिल लेते
शायद उनमें से कोई हम को अपना गंतव्य दिखाता
और तुम्हारा साथ छोड कर हाथ पकड मेरे आ जाता !!
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