देहरी से भोर की ले द्वार तक अस्ताचलों के
गीत मैं लिखता रहा हूँ बस तुम्हारे, बादलों पे
व्योम के इस कैन्वस को टाँग खूँटी पर क्षितिज की
चित्रमय करता रहा हूँ रंग लेकर आँचलों से
ध्यान का हो केन्द्र मेरे एक वंशीवादिनी तुम
बीतते हैं ज़िन्दगी के पल तुम्हारा नाम गाते
चाँदनी की रश्मियों को लेखनी अपनी बना कर
पत्र पर निशिगंध के लिखता रहा हूँ मै सजाकर
सोम से टपकी सुधा के अक्षरों की वर्णमाला
से चुने वह शब्द , कहते नाम जो बस एक गाकर
हो मेरे अस्तित्व का आधार तुम ही बस सुनयने
एक पल झिझका नहीं हूँ, ये सकल जग को बताते
एक पाखी के परों की है प्रथम जो फ़ड़फ़ड़ाहट
दीप की इक वर्त्तिका की है प्रथम जो जगमगाहट
इन सभी से एक बस आभास मिलता , जो तुम्हारा
चक्र की गति में समय के, बस तुम्हारी एक आहट
जो सुघर मोती पगों की चाप से छिटके हुए हैं
वे डगर पर राग की इक रागिनी अद्भुत जगाते
गान में गंधर्व के है गूंजती शहनाईयों का
देवपुर की वाटिका में पुष्प की अँगड़ाइयों का
स्रोत बन कर प्रेरणा का, रूप शतरूपे रहा है
षोडसी श्रॄंगार करती गेह की अँगनाईयों का
जो न होते पांव से चुम्बित तुम्हारे, कौन पाता
नूपुरों को, नॄत्य करती पेंजनी को झनझनाते
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4 comments:
राकेश भाई
पूरा गीत ही झंकृत कर गया दिल के हर तार, वाह!! गीत हो ऐसा.
हो मेरे अस्तित्व का आधार तुम ही बस सुनयने
एक पल झिझका नहीं हूँ, ये सकल जग को बताते
-क्या बात है!! बधाई.
राकेश जी,
सर्वदा की तरह मन के तारों को झंकृत करती हुयी एक बेहतरीन रचना है. पारिवारिक व्यस्तताओं के चलते काफ़ी दिन से कम्पूटर से दूर रहा इस लिये आपके ब्लोग पर नहीं आ पाया .. इस के लिये क्षमाप्रार्थी हूं
झूम उठा दिल कुछ ऐसा कह दिया योहीं चलते-चलते बाते उस यौवन की, प्रेम की, अवधारणाओं की सबकुछ घुल रहा है मेरी उपासनाओं में…।
शानदार कविता… सुंदर।
सबसे पहले मैं आपको बधाई दूंगा आपके ब्लोग के टाइटिल पेर "गीत कलश
" बहुत मनोहारी है .....
और आपकी ये रचना भी बहुत अच्छी लगी ...
सदर धन्यवाद
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