आपकी देख परछाईयाँ झील में, चाँदनी रह गयी है ठगी की ठगी
आप बोले तो मिश्री की कोई डली, फ़िसली होठों से ज्यों चाशनी में पगी
मुस्कुराये तो ऐसा लगा है गगन आज बौछार तारों की करने लगा
नैन जैसे खुले, आस के रंग में डूब कर कल्पनायें उमगने लगीं
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आपकी दॄष्टि की रश्मियों से जगे, बाग में फूल अँगड़ाई लेते हुए
सावनी मेघ घिरने लगे व्योम में, आपके कुन्तलों से फ़िसलते हुए
साँस की टहनियाँ थाम कर झूलतीं, गुनगुना मलयजी होती पुरबाइयाँ
नैन की काजरी रेख से बँध गये, सुरमई सांझ के बिम्ब ढलते हुए
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नव वर्ष २०२४
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4 comments:
सुन्दर कविता है ।
घुघूती बासूती
नई सोंच और हर अंतराल के बाद नये आयाम है आपके मुख पर…।
बहुत अच्छा लगा…।
बढ़िया मुक्तक. आनन्द आया पढ़कर.
बहुत बढिया मुक्तक हैं।
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