टूट गईं वे चन्दन कलमें, जो चित्रित गीतों को करतीं
फूल न अब खिलते शब्दों के मन मेरा हो गया मरुस्थल
कुंठाओं की अमरबेल ने घेरी भावों की फुलवारी
जली प्यास से सुलग रही है, संबंधों की सूनी क्यारी
सौगंधों के डंक विषैले फिर फिर दंश लगा जाते हैं
चुभती है रह रह सीने में तपी याद की एक कटारी
आशाओं की झीलों पर यूँ जमी हुईं काई की परतें
कितने भी पत्थर फ़ेंको, अब होती नहीं तनिक भी हलचल
त्रिभुज बनी हैं विद्रोहित हो, हाथों की सारी रेखायें
पल पल कुसुमित होती रहतीं, मन में उगती हुई व्यथायें
बरसी हुई निराशा पीकर,हो जाता बोझिल सन्नाटा
गठबंधन हैं किये जेठ से, जो सावन की रही घटायें
दिशाभ्रमित पग आतुर, कोई मिले राह से जो अवगत हो
लेकिन मुझको पता पूछती मिली सिर्फ़ पगडंडी पागल
नयनों का हर मोती, हंसा बन कर पीड़ा ने चुग डाला
पथ का हर इक दीप, तिमिर का बैठा ओढ़े हुए दुशाला
अनुभूति पर गिरी अवनिका, अभिव्यक्ति ने खोई वाणी
निशा-नगर से मिला, आस के हर सपने को देश निकाला
बंजर हुई भावनाओं की, प्राणों से सिंचित अमराई
गिरे पथिक को अब राहों में देता नहीं कोई भी संबल
सुधि की पुस्तक का हर पन्ना, फ़टा और उड़ गया हवा में
कोष लूट ले गये लुटेरे, छुप कर माँगी हुई दुआ में
रही टपकती उम्र पिघल कर, माँग प्रतीक्षा की सूनी ही
और उपेक्षित सन्दर्भों पर वापिस पड़ती नहीं निगाहें
तोड़ चुकी दम, हर वह दस्तक, जिसमें स्वाद दिलासे का था
सिर्फ़ शेष है दर्द पुराना, खड़काता आ आकर साँकल
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6 comments:
राकेश जी जबसे गीत गाने शुरू किये है आपके गीतों से ही शुरूआत हुई है बहुत ही सुन्दर गीत है...आपको बहुत-बहुत बधाई
सुनीता(शानू)
राकेश जी,बहुत ही बढिया गीत है...अपकी शब्दो पर अच्छी पकड़ है।
नयनों का हर मोती,
हंसा बन कर पीड़ा ने चुग डाला
पथ का हर इक दीप,
तिमिर का बैठा ओढ़े हुए दुशाला
अनुभूति पर गिरी अवनिका,
अभिव्यक्ति ने खोई वाणी
निशा-नगर से मिला,
आस के हर सपने को देश निकाला
"आशाओं की झीलों पर यूँ जमी हुईं काई की परतें
कितने भी पत्थर फ़ेंको, अब होती नहीं तनिक भी हलचल"
सशक्त अभिव्यक्ति है -- शास्त्री जे सी फिलिप
मेरा स्वप्न: सन 2010 तक 50,000 हिन्दी चिट्ठाकार एवं,
2020 में 50 लाख, एवं 2025 मे एक करोड हिन्दी चिट्ठाकार!!
बहुत सुन्दर. वाह!! मरुस्थल में इतने सुन्दर फूल खिले हैं. गजब, भाई सहब.
दिशाभ्रमित पग आतुर, कोई मिले राह से जो अवगत हो
लेकिन मुझको पता पूछती मिली सिर्फ़ पगडंडी पागल
रचना आपकी सुंदर ही होती है...पर भाव विवश लगा ।
आशाओं की झीलों पर यूँ जमी हुईं काई की परतें
कितने भी पत्थर फ़ेंको, अब होती नहीं तनिक भी हलचलय
वाह!
शब्दों में कुछ कहना तो कठिन है, किंतु सुधि की पुस्तक का हर पन्ना, फ़टा और उड़ गया हवा में कोष लूटने वाले लुटेरों में रस लूटने में हम भी पीछे नहीं हैं।
जब कभी मानसिक भूख तंग करती है तो गीत-कलश के पन्नों में बड़ा सुकून मिलता है।
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