हो नये वर्ष में आपका हर दिवस, गुरुकुलों के सहज आचरण की तरह
यज्ञ में होम करते हुए मंत्र से जुड़ रहे शुद्ध अंत:करण की तरह
पॄष्ठ पर जीवनी के लिखें आपके,सूर्य की रश्मियाम जो सुनहरी कथा
शब्द उसका हो हर इक नपा औ' तुला, एक सुलझे हुए व्याकरण की तरह
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प्रीत में नहाती हुई, गीत गुनगुनाती हुई
रात के सिरहाने जो है चाँदनी की पालकी
फागुनी उमंग जैसी, सावनी अनंग जैसी
बिन्दिया सी एक दुल्हनिया के भाल की
कंगनों की खनक लिये, घुंघरुओं की छनक लिये
रागिनी सी पैंजनी के सुर और ताल की
आपकी गली में रहे, खुश्बुओं में ढली बही
मीठी स्मॄति साथ लिये, बीत गये साल की
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आशाओं के ओसकणों से भोर सदा भरती हो
स्वर्णमयी हर निमिष आपके पांव तले धरती हो
कचनारों की कलियां बूटे रँगें आन देहरी पर
नये वर्ष में सांझ आप पर सुधा बनी झरती हो
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रोलियों अक्षतों में रँगें आस को
इक नये वर्ष की ओढ़नी इढ़ कर
आई उषा की दुल्हन खड़ी द्वार पर
आओ अगवानी करने को आगे बढें
कामनायें चलें साथ श्रन्गार कर
विश्व कल्याण की रोलियां लें सजा
इक नई आस को अक्षतों में भरें
मुस्कुराहट के रंगीन कुसुमों तले
ज़िन्दगी की डगर हर सुगंधित करें
ईश की देन हर मानवी देह को
आओ मंदिर बना कर करें आरती
हर दिशा तान वीणा की छेड़े रहे
सांझ सरगम के नूपुर हो झंकारती
फ़ागुनी हो उमंगें बरसती रहें
हर घड़ी हर दिवस पूर्ण संसार पर
वैमनस्यों की रजनी जो अबकी ढले
फिर न देखे कभी भोर की रश्मियां
जो भी दीवार अलगाव की हैं खिंची
उनमें अपनत्व की आ खुलें खिड़कियां
पूर्ण वसुधा है इक, हम कुटुम्बी सभी
आओ इस बात को फिर से व्यवहार दें
हाथ अपने बढ़ाते चलें हम सभी
जो मिले राह में उसको बस प्यार दें
स्वप्न हर इक ढले शिल्प में, औ' गगन
गाये दिन रात पुष्पों की बौछार कर
आओ नव वर्ष की ले प्रथम नवकिरण
कुछ लिखें हम नया और संकल्प लें
नव प्रयासों के पाथेय की पोटली
साथ ले, नीड़ की नव डगर थाम लें
गान मधुपों के, झरनों के, कोयल के ले
कंठ का स्वर सभी का सजाते रहें
बाँटकर अपनी उपलब्धियों के सिले
ज़िन्दगी खूबसूरत बनाते रहें
आओ मिल कर रखें नींव अनुराग की
आज विश्वास के ठोस आधार पर
इक नये वर्ष की ओढ़नी ओढ़कर
आई उषा की दुल्हन खड़ी द्वार पर
राकेश खंडेलवाल
नववर्ष २००७
आई उषा की दुल्हन खड़ी द्वार पर
आओ अगवानी करने को आगे बढें
कामनायें चलें साथ श्रन्गार कर
विश्व कल्याण की रोलियां लें सजा
इक नई आस को अक्षतों में भरें
मुस्कुराहट के रंगीन कुसुमों तले
ज़िन्दगी की डगर हर सुगंधित करें
ईश की देन हर मानवी देह को
आओ मंदिर बना कर करें आरती
हर दिशा तान वीणा की छेड़े रहे
सांझ सरगम के नूपुर हो झंकारती
फ़ागुनी हो उमंगें बरसती रहें
हर घड़ी हर दिवस पूर्ण संसार पर
वैमनस्यों की रजनी जो अबकी ढले
फिर न देखे कभी भोर की रश्मियां
जो भी दीवार अलगाव की हैं खिंची
उनमें अपनत्व की आ खुलें खिड़कियां
पूर्ण वसुधा है इक, हम कुटुम्बी सभी
आओ इस बात को फिर से व्यवहार दें
हाथ अपने बढ़ाते चलें हम सभी
जो मिले राह में उसको बस प्यार दें
स्वप्न हर इक ढले शिल्प में, औ' गगन
गाये दिन रात पुष्पों की बौछार कर
आओ नव वर्ष की ले प्रथम नवकिरण
कुछ लिखें हम नया और संकल्प लें
नव प्रयासों के पाथेय की पोटली
साथ ले, नीड़ की नव डगर थाम लें
गान मधुपों के, झरनों के, कोयल के ले
कंठ का स्वर सभी का सजाते रहें
बाँटकर अपनी उपलब्धियों के सिले
ज़िन्दगी खूबसूरत बनाते रहें
आओ मिल कर रखें नींव अनुराग की
आज विश्वास के ठोस आधार पर
इक नये वर्ष की ओढ़नी ओढ़कर
आई उषा की दुल्हन खड़ी द्वार पर
राकेश खंडेलवाल
नववर्ष २००७
बात इक रात की
थी धुंधलके मे रजनी नहाये हुए
चांदनी चांद से गिर के मुरझाई सी
आंख मलती हुई तारकों की किरण
ले रही टूटती एक अँगड़ाई सी
कक्ष का बुझ रहा दीप लिखता रहा
सांझ से जो शुरू थी कहानी हुई
लड़खड़ाते कदम से चले जा रही
लटकी दीवार पर की घड़ी की सुई
फ़र्श पर थी बिछी फूल की पाँखुरी
एड़ियों के तले बोझ से पिस रही
टूटती सांस की डोरियां थाम कर
खुश्बुओं से हवाओं का तन रंग रही
और खिड़की के पल्ले को थामे खड़ी
एक प्रतिमा किसी अस्त जुन्हाई की
शून्य जैसे टपकता हुआ मौन से
्होके निस्तब्ध था हाथ बाँधे खड़ा
गुनगुनता रहा एक चंचल निमिष
जो समय शिल्प ने था बरस भर गढ़ा
बिन्दु पर आ टिका सॄष्टि के, यष्टि के
पूर्ण अस्तित्व को था विदेही किये
देहरी पर प्रतीक्षा लिये ऊँघते
स्वप्न आँखों ने जो भी थे निष्कॄत किये
गंध पीती हुई मोतिये की कली
बज रही थी किसी एक शहनाई सी
डूबते राग में ऊबते चाँद को
क्या धरा क्या गगन सब नकारे हुए
एक अलसाई बासी थकन सेज पर
पांव थी बैठ, अपने पसारे हुए
रिक्तता जलकलश की रही पूछती
तॄप्ति का कोई सन्देश दे दे अधर
ताकता था दिया क्या हो अंतिम चरण
जो कहानी लिखी थी गई रात भर
भोर की इक किरन नीम की डाल पर
आके बैठी रही सिमटी सकुचाई सी
चांदनी चांद से गिर के मुरझाई सी
आंख मलती हुई तारकों की किरण
ले रही टूटती एक अँगड़ाई सी
कक्ष का बुझ रहा दीप लिखता रहा
सांझ से जो शुरू थी कहानी हुई
लड़खड़ाते कदम से चले जा रही
लटकी दीवार पर की घड़ी की सुई
फ़र्श पर थी बिछी फूल की पाँखुरी
एड़ियों के तले बोझ से पिस रही
टूटती सांस की डोरियां थाम कर
खुश्बुओं से हवाओं का तन रंग रही
और खिड़की के पल्ले को थामे खड़ी
एक प्रतिमा किसी अस्त जुन्हाई की
शून्य जैसे टपकता हुआ मौन से
्होके निस्तब्ध था हाथ बाँधे खड़ा
गुनगुनता रहा एक चंचल निमिष
जो समय शिल्प ने था बरस भर गढ़ा
बिन्दु पर आ टिका सॄष्टि के, यष्टि के
पूर्ण अस्तित्व को था विदेही किये
देहरी पर प्रतीक्षा लिये ऊँघते
स्वप्न आँखों ने जो भी थे निष्कॄत किये
गंध पीती हुई मोतिये की कली
बज रही थी किसी एक शहनाई सी
डूबते राग में ऊबते चाँद को
क्या धरा क्या गगन सब नकारे हुए
एक अलसाई बासी थकन सेज पर
पांव थी बैठ, अपने पसारे हुए
रिक्तता जलकलश की रही पूछती
तॄप्ति का कोई सन्देश दे दे अधर
ताकता था दिया क्या हो अंतिम चरण
जो कहानी लिखी थी गई रात भर
भोर की इक किरन नीम की डाल पर
आके बैठी रही सिमटी सकुचाई सी
बस एक नाम-वह नाम एक
हर एक दिशा में एक चित्र
हर स्वर में घुलता नाम एक
लहराती हुई हवाओं के
हर झोंके का गुणगान एक
लहरों की हर अठखेली में
तट से मिलते संदेशों में
जलकन्याओं के नीलांचल
से सज्जित सब परिवेशों में
अंबर पर और धरातल पर
हर इक आवारा बादल पर
जिस ओर नजर दौड़ाता हूँ
बस दिखता मुझे निशान एक
उगते सूरज की किरणों में
अलसी हर एक दुपहरी में
तालाब,वावड़ी पोखर से
लेकर हर नदिया गहरी में
संध्या के रंगी अम्बर के
गुपचुप बतियाते अम्बर के
हर इक पल में हर इक क्षण में
बस गुंजित होती तान एक
होने में और न होने में
कुछ पा लेने, कुछ खोने में
मिलता जो सहज पूर्णता में
या मिलता औने पौने में
अस्तित्व बोध में जो व्यापक
सांसों की वंशी का वादक
हर एक कल्पना पाखी की
वह बन कर रहा उड़ान एक
वह चेतन और अचेतन में
वह गहन शून्य में टँगा हुआ
विस्तारित क्षितिजों से आगे
है रँगविहीन, पर रँगा हुआ
जीवन पथ का वह केन्द्र बिन्दु
जिसके पगतल में सप्त सिन्धु
वह प्राण प्रणेता, प्राण साध्य
वह इक निश्चय, अनुमान एक
बस एक नाम वह नाम एक
हर स्वर में घुलता नाम एक
लहराती हुई हवाओं के
हर झोंके का गुणगान एक
लहरों की हर अठखेली में
तट से मिलते संदेशों में
जलकन्याओं के नीलांचल
से सज्जित सब परिवेशों में
अंबर पर और धरातल पर
हर इक आवारा बादल पर
जिस ओर नजर दौड़ाता हूँ
बस दिखता मुझे निशान एक
उगते सूरज की किरणों में
अलसी हर एक दुपहरी में
तालाब,वावड़ी पोखर से
लेकर हर नदिया गहरी में
संध्या के रंगी अम्बर के
गुपचुप बतियाते अम्बर के
हर इक पल में हर इक क्षण में
बस गुंजित होती तान एक
होने में और न होने में
कुछ पा लेने, कुछ खोने में
मिलता जो सहज पूर्णता में
या मिलता औने पौने में
अस्तित्व बोध में जो व्यापक
सांसों की वंशी का वादक
हर एक कल्पना पाखी की
वह बन कर रहा उड़ान एक
वह चेतन और अचेतन में
वह गहन शून्य में टँगा हुआ
विस्तारित क्षितिजों से आगे
है रँगविहीन, पर रँगा हुआ
जीवन पथ का वह केन्द्र बिन्दु
जिसके पगतल में सप्त सिन्धु
वह प्राण प्रणेता, प्राण साध्य
वह इक निश्चय, अनुमान एक
बस एक नाम वह नाम एक
बस कुहासे मिले
अतिक्रमण बादलों का हुआ इस तरह
चाँदनी की डगर पर कुहासे मिले
रंग ऊषा ने आ जो गगन में भरे
वे धुंआसे, धुंआसे धुंआसे मिले
बन मदारी बजाते हुए डुगडुगी
र्क कोने में पहले हुए आ खड़े
उंगलियों का सहारा तनिक जो मिला
सीधे कांधों पे आकर के बौठे चढ़े
नाम अपना बताते रहे सावनी
किन्तु भटके पथिक थे ये बैसाख के
बस मुखौटा चढ़ाये शैं मुस्कान का
ये लुटेरे सहज भोले विश्वास के
साथ इनके चले पग जो दो राह में
वे सभी आज हो बदहवासे मिले
मन रिझाने को आये ले नॄत्यांगना
साथ अपने चपल सिरचढ़ी दामिनी
मंत्र सम्मोहनों के हजारों लिये
उर्वशी मेनका की ये अनुगामिनी
कर वशीभूत सबको छले जा रही
नीलकंठी बना हमको विष दे रही
मोहनी बन भरे सोमरस के चषक
अपने अनुरागियों को दिये जा रही
और आश्वासनों के भंवर में उलझ
जो कि लहरों के नाविक थे, प्यासे मिले
पोखरों के ये दादुर थे कल सांझ तक
आज नभ चढ़ गये, चलते फ़रजी बने
अपने कद से भी ऊँचे बहुत हो गये
अपना आधार पाते नहीं देखने
हैं ये पुच्छल सितारों से यायावरी
पंथ का भान होते बरस बीतते
और हर बार गमलों में रोपी हुइ
स्वप्न की क्यारियाँ सैंकड़ों सींचते
इनके पनघट पे कांवर लिये जो गया
उसको भर भर कलश सिर्फ़ झांसे मिले
चाँदनी की डगर पर कुहासे मिले
रंग ऊषा ने आ जो गगन में भरे
वे धुंआसे, धुंआसे धुंआसे मिले
बन मदारी बजाते हुए डुगडुगी
र्क कोने में पहले हुए आ खड़े
उंगलियों का सहारा तनिक जो मिला
सीधे कांधों पे आकर के बौठे चढ़े
नाम अपना बताते रहे सावनी
किन्तु भटके पथिक थे ये बैसाख के
बस मुखौटा चढ़ाये शैं मुस्कान का
ये लुटेरे सहज भोले विश्वास के
साथ इनके चले पग जो दो राह में
वे सभी आज हो बदहवासे मिले
मन रिझाने को आये ले नॄत्यांगना
साथ अपने चपल सिरचढ़ी दामिनी
मंत्र सम्मोहनों के हजारों लिये
उर्वशी मेनका की ये अनुगामिनी
कर वशीभूत सबको छले जा रही
नीलकंठी बना हमको विष दे रही
मोहनी बन भरे सोमरस के चषक
अपने अनुरागियों को दिये जा रही
और आश्वासनों के भंवर में उलझ
जो कि लहरों के नाविक थे, प्यासे मिले
पोखरों के ये दादुर थे कल सांझ तक
आज नभ चढ़ गये, चलते फ़रजी बने
अपने कद से भी ऊँचे बहुत हो गये
अपना आधार पाते नहीं देखने
हैं ये पुच्छल सितारों से यायावरी
पंथ का भान होते बरस बीतते
और हर बार गमलों में रोपी हुइ
स्वप्न की क्यारियाँ सैंकड़ों सींचते
इनके पनघट पे कांवर लिये जो गया
उसको भर भर कलश सिर्फ़ झांसे मिले
चाँदनी मुस्कुराते हुए चुप
किसकी अंगड़ाई से है उगी भोर ये, ढल गई रात, जब सब लगे पूछने
चांदनी मुस्कुराते हुए चुप रही, आपकी ओर केवल लगी देखने
पांव का नख , जहां था कुरेदे जमीं देखिये अब वहां झील इक बन गई
कुन्तलों से उठी जो लहर, वो संवर्निर्झरों में सिमटती हुई ढल गई
धूप मुस्कान की छू गई तो कली, अपने यौवन की देहरी पे चढ़ने लगी
जब नयन की सुराही झुकी एक पल, प्यालियों में स्वयं ही सुधा ढल गई
आपके इंगितों से बँधा है हुआ, सबसे आकर कहा सावनी मेह ने
चाँदनी मुस्कुराते हुए चुप रही, आपकी ओर केवल लगी देखने
आपके कंगनो की खनक से जुड़ी तो हवा गीत गाने लगी प्यार के
आपकी पैंजनी की छमक थाम कर मौसमों ने लिखे पत्र मनुहार के
चूम कर हाथ की मेंहदी को गगन सांझ सिन्दूर के रंग रँगने लगा
बँध अलक्तक से प्राची लिखे जा रही फिर नियम कुछ नये रीत व्यवहार के
आप जब रूक गये, काल रथ थम गया किस तरफ़ जाये सबसे लगा बूझने
किसकी अँगड़ाई से है उगी भोर ये, ढल गई रात अब सब लगे पूछने
चांदनी मुस्कुराते हुए चुप रही, आपकी ओर केवल लगी देखने
पांव का नख , जहां था कुरेदे जमीं देखिये अब वहां झील इक बन गई
कुन्तलों से उठी जो लहर, वो संवर्निर्झरों में सिमटती हुई ढल गई
धूप मुस्कान की छू गई तो कली, अपने यौवन की देहरी पे चढ़ने लगी
जब नयन की सुराही झुकी एक पल, प्यालियों में स्वयं ही सुधा ढल गई
आपके इंगितों से बँधा है हुआ, सबसे आकर कहा सावनी मेह ने
चाँदनी मुस्कुराते हुए चुप रही, आपकी ओर केवल लगी देखने
आपके कंगनो की खनक से जुड़ी तो हवा गीत गाने लगी प्यार के
आपकी पैंजनी की छमक थाम कर मौसमों ने लिखे पत्र मनुहार के
चूम कर हाथ की मेंहदी को गगन सांझ सिन्दूर के रंग रँगने लगा
बँध अलक्तक से प्राची लिखे जा रही फिर नियम कुछ नये रीत व्यवहार के
आप जब रूक गये, काल रथ थम गया किस तरफ़ जाये सबसे लगा बूझने
किसकी अँगड़ाई से है उगी भोर ये, ढल गई रात अब सब लगे पूछने
आप
लाल, नीले, हरे, बैंगनी, कत्थई, रंग ऊदे मिले, रंग धानी मिले
तोतई, चम्पई, भूरे पीले मिले, रंग मुझको कभी आसमानी मिले
रंग सिन्दूर मेंहदी के मुझको मिले, रंग सोने के चांदी के आये निकट
पर न ऐसे मिले रंग मुझको कभी, आपकी जिनसे कोई निशानी मिले
-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०
चांद सोया पड़ा था किसी झील में, आपका बिम्ब छूकर महकने लगा
गुलमोहर की गली में भटकता हुआ पल पलाशों सरीखा दहकने लगा
शांत निस्तब्धता की दुशाला लिये, एक झोंका हवा का टँगा नीम पर
आपके होंठ पर एक स्मित जो जगी, तो पपीहे की तरह चहकने लगा
तोतई, चम्पई, भूरे पीले मिले, रंग मुझको कभी आसमानी मिले
रंग सिन्दूर मेंहदी के मुझको मिले, रंग सोने के चांदी के आये निकट
पर न ऐसे मिले रंग मुझको कभी, आपकी जिनसे कोई निशानी मिले
-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०
चांद सोया पड़ा था किसी झील में, आपका बिम्ब छूकर महकने लगा
गुलमोहर की गली में भटकता हुआ पल पलाशों सरीखा दहकने लगा
शांत निस्तब्धता की दुशाला लिये, एक झोंका हवा का टँगा नीम पर
आपके होंठ पर एक स्मित जो जगी, तो पपीहे की तरह चहकने लगा
तुमने मुझसे कहा
तुमने मुझसे कहा, चांद के रंग, गंध में डुबो डुबो कर
गये निखारे कुछ सपनों को, मेरे नयनों में भेजोगे
और प्रीतमय आशाओं की कूची से जो गये चितेरे
उन चित्रों को साथ बैठकर, एक नजर से तुम देखोगे
नयनों के वातायन के पट, मैने तब से खोल रखे हैं
चन्द्र किरण को अपने घर के पथ निर्देशन बोल रखे हैं
सेज प्रतीक्षित है, स्वागत-पथ पर फैलाये अपनी बाहें
आतिथेय को प्रक्षालन जल में, गुलाब भी घोल रखे हैं
रंग भरे धागों की डोरी में तारों से किये अलंकॄत
रक्त-पुष्प की जयमाला को थाली में रख कर भेजोगे
मन के उपवन ने मधुबन की बासंती चूनरिया ओढ़ी
आकुलता से व्याकुल होकर, पथ पर बैठी चाह निगोड़ी
आतुरता से बिंध अभिलाषा, रह रह उठे और फिर बैठे
उन्मादी सुधियों ने अपनी सुध-बुध की सीमायें तोड़ीं
देहरी पर रांगोली रंगने को तुम इन्द्रधनुष के संग में
अपने हाथों की मेंहदी में कुंकुम को रंग कर भेजोगे
चित्र लेख के श्रंगारों से सजी हुई घर की दीवारें
आकॄतियां आकंठ प्रीत में डूब, चित्र के रंग निखारें
आश्वासन को विश्वासों का आलंबन कर मुदित ह्रदय से
टँगी हुईं हैं दरवाजे पर, मन की कुछ चंचल मनुहारें
दॄष्टि-चुम्बनातुर चित्रों की जननी कोमल एक भावना
है निश्चिन्त आन तुम उसको अपनी बाहों में भर लोगे
गये निखारे कुछ सपनों को, मेरे नयनों में भेजोगे
और प्रीतमय आशाओं की कूची से जो गये चितेरे
उन चित्रों को साथ बैठकर, एक नजर से तुम देखोगे
नयनों के वातायन के पट, मैने तब से खोल रखे हैं
चन्द्र किरण को अपने घर के पथ निर्देशन बोल रखे हैं
सेज प्रतीक्षित है, स्वागत-पथ पर फैलाये अपनी बाहें
आतिथेय को प्रक्षालन जल में, गुलाब भी घोल रखे हैं
रंग भरे धागों की डोरी में तारों से किये अलंकॄत
रक्त-पुष्प की जयमाला को थाली में रख कर भेजोगे
मन के उपवन ने मधुबन की बासंती चूनरिया ओढ़ी
आकुलता से व्याकुल होकर, पथ पर बैठी चाह निगोड़ी
आतुरता से बिंध अभिलाषा, रह रह उठे और फिर बैठे
उन्मादी सुधियों ने अपनी सुध-बुध की सीमायें तोड़ीं
देहरी पर रांगोली रंगने को तुम इन्द्रधनुष के संग में
अपने हाथों की मेंहदी में कुंकुम को रंग कर भेजोगे
चित्र लेख के श्रंगारों से सजी हुई घर की दीवारें
आकॄतियां आकंठ प्रीत में डूब, चित्र के रंग निखारें
आश्वासन को विश्वासों का आलंबन कर मुदित ह्रदय से
टँगी हुईं हैं दरवाजे पर, मन की कुछ चंचल मनुहारें
दॄष्टि-चुम्बनातुर चित्रों की जननी कोमल एक भावना
है निश्चिन्त आन तुम उसको अपनी बाहों में भर लोगे
नाम मैने लिखा
चाँदनी में भिगो कर ह्रदय का सुमन
स्वर्ण के वर्क सी भाव की कर छुअन
नैन के पाटलों पर सपन से जड़ा
छंद मैने लिखा गीत का
भोर की झील में पिघला कंचन बहा
कलरवों ने दिशाओं को आवाज़ दी
आरती गूँजती मंदिरों की , बनी
फिर से पाथेय यायावरी साध की
बादलों पर्टँगी धूप ने कुछ्ह कहा
तो हवा झूम कर गुनगुनाने लगी
शाख पर नींद से जाग उठती कली
लाज का अपनी घूँघट हटाने लगी
कसमसाती हुई एक अँगड़ाई पर
गंध में डूब कर आई पुरवाई पर
तितलियों के परों से चुरा रंग को
नाम मैने लिखा प्रीत का
कंगनों की खनक ने उजाले बुने
जब प्रणय-गान की कुमकुमी राह पर
पैंजनी रंग में फागुनों के रँगी
झनझनाती हुई बढ़ते उत्साह पर
काजलों ने झुका लीं पलक, मेंहदी
और गहरी हुई, कर सजाने लगी
भोजपत्रों पे गाथायें कुछ हैं लिखीं,
कंचुकी, ओढ़नी को बताने लगी
साधना का प्रथम और अंतिम चरण
भित्तिचित्रों में जिसका हुआ अनुसरण
बस उसी एक आराधना में रँगा
नाम मैने लिखा रीत का
टिमटिमाती कँदीलों से उठता धुआं
ड्योढ़ियों से रहा झाँकता जिस घड़ी
बुझ चुकी धूप की मौन बोझिल शिखा
होंठ पर उंगलियां थी लगाये खड़ी
पाखियों की उड़ानें, थकेहाल हो
नीड़ में आ बिखरती हुई सो गईं
पीपलों के तले जुगनुओं की चमक
निशि के आँचल के विस्तार में खो गईं
साँझ की सुरमई रोशनी ओढ़कर
सारी सीमायें बंधन सभी तोड़ कर
रात की श्याम चूनर पे तारों जड़ा
नाम मैने लिखा मीत का
स्वर्ण के वर्क सी भाव की कर छुअन
नैन के पाटलों पर सपन से जड़ा
छंद मैने लिखा गीत का
भोर की झील में पिघला कंचन बहा
कलरवों ने दिशाओं को आवाज़ दी
आरती गूँजती मंदिरों की , बनी
फिर से पाथेय यायावरी साध की
बादलों पर्टँगी धूप ने कुछ्ह कहा
तो हवा झूम कर गुनगुनाने लगी
शाख पर नींद से जाग उठती कली
लाज का अपनी घूँघट हटाने लगी
कसमसाती हुई एक अँगड़ाई पर
गंध में डूब कर आई पुरवाई पर
तितलियों के परों से चुरा रंग को
नाम मैने लिखा प्रीत का
कंगनों की खनक ने उजाले बुने
जब प्रणय-गान की कुमकुमी राह पर
पैंजनी रंग में फागुनों के रँगी
झनझनाती हुई बढ़ते उत्साह पर
काजलों ने झुका लीं पलक, मेंहदी
और गहरी हुई, कर सजाने लगी
भोजपत्रों पे गाथायें कुछ हैं लिखीं,
कंचुकी, ओढ़नी को बताने लगी
साधना का प्रथम और अंतिम चरण
भित्तिचित्रों में जिसका हुआ अनुसरण
बस उसी एक आराधना में रँगा
नाम मैने लिखा रीत का
टिमटिमाती कँदीलों से उठता धुआं
ड्योढ़ियों से रहा झाँकता जिस घड़ी
बुझ चुकी धूप की मौन बोझिल शिखा
होंठ पर उंगलियां थी लगाये खड़ी
पाखियों की उड़ानें, थकेहाल हो
नीड़ में आ बिखरती हुई सो गईं
पीपलों के तले जुगनुओं की चमक
निशि के आँचल के विस्तार में खो गईं
साँझ की सुरमई रोशनी ओढ़कर
सारी सीमायें बंधन सभी तोड़ कर
रात की श्याम चूनर पे तारों जड़ा
नाम मैने लिखा मीत का
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नव वर्ष २०२४
नववर्ष 2024 दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...
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