कल्पना के किसी मोड़ पर प्रियतमे
तुम खड़े हो, मैं ये जानता हूँ मगर
मानचित्रों में पहचान पाता नहीं
कौन सी है वहां तक जो जाती डगर
दुधमुंही एक भोली मधुर कामना
इक तुम्हारी सपन डोर पकड़े हुए
और सान्निध्य की चंद अनुभूतियां
अपने भुजपाश में उसको जकड़े हुए
बादलों में उभरते हुए चित्र में
बस तुम्हारे ही रंगों को भरती हुई
खूँटियों पर दिशाओं की नभ टाँग कर
तुमको ही अपना संसार करती हुई
पूछती नित्य उनचास मरुतों से यह
कुछ पता ? है कहाँ पर तुम्हारा नगर
रोज पगडंडियों पर नजर को रखे
वावली आस बैठी हुई द्वार पर
पल कोई एक यायावरी भूल से
ले के संदेस आ जाये इस राह पर
तो अनिश्चय के कोहरे छँटें जो घिरे
धुन्ध असमंजसों की हवा में घुले
कल्पना से निकल आओ तुम इस तरफ़
और संबंध के कुछ बनें सिलसिले
आस को आस फिर बदली उड़ती कोई
इस तरफ़ लेके आये तुम्हारी खबर
स्वप्न की पालकी ले खड़ी है निशा
तुम जो आओ तो वो मांग भी भर सके
ले कपोलों पे छितरी हुई लालिमा
रंग मेंहदी में फिर कुछ नये भर सके
पांव के आलते से रंगे अल्पना
और देहरी को अपनी सुहागन करे
कलियां वेणी की लेकर सितारे बना
साथ नीहारिकाओं के वन्दन करे
तीर को थाम कर पथ तुम्हारा तके
उठती आकाशगंगा में हर इक लहर
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2 comments:
सच से कल्पना भली है...
सोच पर खिली एक कली है...
जब भी हकीकत इनमें ढली हे...
थोड़ी और सुन्दर लगी है...
आपकी कल्पना शब्दों के बहुत सुन्दर लिबास में खड़ी है!!
बहुत अच्छे भावों से परिपूर्ण आपकी रचना बहुत पसंद आई।
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