आप की देह की गंध पी है जरा
लड़खड़ाने लगी बाग में ये हवा
कर रही थी चहलकदमियाँ ये अभी
लग पड़ी गाल पर ज़ुल्फ़ को छेड़ने
चूमने लग गई इक कली के अधर
लाज के पट लगी पांव से भेड़ने
ओस से सद्यस्नाता निखरती हुई
दूब को सहसा झूला झुलाने लगी
थी अभी होंठ पर उंगलियों को रखे
फिर अभी झूम कर गुनगुनाने लगी
फूल काटों से रह रह लगे पूछने
कुछ पता ? आज इसको भला क्या हुआ
फुनगियों पर चढ़ी थी पतंगें बनी
फिर उतर लग गई पत्तियों के गले
बात की इक गिलहरी से रूक दो घड़ी
फिर छुपी जा बतख के परों के तले
तैरने लग पड़ी होड़ लहरों से कर
झील में थाम कर नाव के पाल को
घूँघटों की झिरी में लगी झाँकने
फिर उड़ाने लगी केश के शाल को
डूब आकंठ मद में हुई मस्त है
कर न पाये असर अब कोई भी दवा
ये गनीमत है चूमे अधर थे नहीं
आपको थाम कर अपने भुजपाश में
वरना गुल जो खिलाते, भला क्या कहें
घोल मदहोशियाँ अपनी हर साँस में
सैकड़ों मयकदों के उंड़ेले हुए
मधुकलश के नशे एक ही स्पर्श में
भूलती हर डगर, हर नगर हर दिशा
खोई रहती संजोये हुए हर्ष में
और संभव है फिर आपसे पूछती
कौन है ये सबा? कौन है ये हवा ?
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4 comments:
पुन: एक बेहतरीन रचना के लिये बधाई.
'ये गनीमत है चूमे अधर थे नहीं
आपको थाम कर अपने भुजपाश में
वरना गुल जो खिलाते, भला क्या कहें'
क्या बात है, वाह!
समीर लाल
अदभुत प्रतिभा आपकी,
जग है देख के दंग,
बागों में बिखरा दिया,
खुशबू वाला रंग।
अभिनव
चन्दन वन में जायें तो मिलती सहज सुगंध
कवियों की संगत मिले, सहज संवरते छंद
कैसे कोई आँख देखती
सपन संजोये थे जो हमने ?
कैसे कोई गा पाता है
जो रहता बस दिल में अपने ?
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