लेखनी ओढ़ निस्तब्धता सो गई, शब्द पर एक ठहराव सा आ गया
हो गया है अपरिचित निमिष हर कोई, गीत बन जो कभी होठ पर छा गया
छंद से , रागिनी, ताल से हो विलग, भाव अभिव्यक्तियों बिन अधूरा रहा
नज़्म के मुक्तकों के गज़ल के सफ़र में लगा एक गतिरोध है आ गया.
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शब्द हैं अनगिनत,भाव का सिन्धु है, किन्तु दोनों में पल न समन्वय हुआ
शब्द थे डूब खुद में ही बैठे रहे, और था भाव अपने में तन्मय हुआ
छन्द छितरा गये, लक्षणा लड़खड़ा, व्यंजना को व्यथायें सुनाती रही
आज अभिव्यक्तियां अपनी असमर्थ है, लीजिये अन्तत: बस यही तय हुआ
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नव वर्ष २०२४
नववर्ष 2024 दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...
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प्यार के गीतों को सोच रहा हूँ आख़िर कब तक लिखूँ प्यार के इन गीतों को ये गुलाब चंपा और जूही, बेला गेंदा सब मुरझाये कचनारों के फूलों पर भी च...
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हमने सिन्दूर में पत्थरों को रँगा मान्यता दी बिठा बरगदों के तले भोर, अभिषेक किरणों से करते रहे घी के दीपक रखे रोज संध्या ढले धूप अगरू की खुशब...
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जाते जाते सितम्बर ने ठिठक कर पीछे मुड़ कर देखा और हौले से मुस्कुराया. मेरी दृष्टि में घुले हुये प्रश्नों को देख कर वह फिर से मुस्कुरा दिया ...