प्रिये अधर से तुमने अपने जब से किये अधर पर मेरे
हस्ताक्षर, तब से सपनों की बगिया और निखर आई है
आतुर हुई कामना भर ले यष्टि कमल को भुजपाशों में
आकाँक्षायें हैं सांसों की घुलें महक वाली सांसों में
नयनों की पुतली बन रांझा,चित्र हीर के बना रही है
नये रंग में नये रूप के मिले न जैसे इतिहासों में
देह तुम्हारी छूकर आई पुरबाई ने जब से आकर
मुझे छुआ है लगा धरा पर अलकापुरी उतर आई है
लगी जागने भोर रूप की उजली धूप बाँह में लेकर
निशा संवरने लगी घटाओं से लहराते कुन्तल छूकर
नींदों वाली डोर थाम कर लगे झूलने झूला तारे
महकीं डगर, और अलगोजे लगे गूँजने चहुंदिशि भू पर
द्वार तुम्हारे से आ मलयज मेरी गलियों से जब गुजरी
मुझको लगा तुम्हारे नूतन संदेसे लेकर आई है
हुए तिरोहित एक निमिष में मन के मेरे संशय सारे
रातों में आ लगे जलाने दीपक पूनम के उजियारे
नदिया की लहरों सी पल पल लगीं उमड़ने मधुर उमंगें
एक तुम्हारी छवि रहती है बस नजरों में सांझ सकारे
स्वर से उपजी सरगम ने आ जब से छुआ गीत इक मेरा
लगा मुझे मेरे शब्दों में वीणा स्वयं उतर आई है
नव वर्ष २०२४
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