बहुत दिनों से सोच रहा हूँ कोई गीत लिखूँ
इतिहासों में मिले न जैसी, ऐसी प्रीत लिखूँ
भुजपाशों की सिहरन का हो जहाँ न कोई मानी
अधर थरथरा कर कहते हो पल पल नई कहानी
नये नये आयामों को छू लूँ मैं नूतन लिख कर
कोई रीत न हो ऐसी जो हो जानी पहचानी
जो न अभी तक बजा, आज स्वर्णिम संगीत लिखूँ
बहुत दिनों से सोच रहा हूँ मैं इक गीत लिखूँ
प्रीत रूक्मिणी की लिख डालूँ जिसे भुलाया जग ने
लिखूँ सुदामा ने खाईं जो साथ कॄष्ण के कसमें
कालिन्दी तट कुन्ज लिखूँ, मैं लिखूँ पुन: वॄन्दावन
और आज मैं सोच रहा हूँ डूब सूर के रस में
बाल कॄष्ण के कर से बिखरा जो नवनीत लिखूँ
बहुत दिनों से सोच रहा हूँ मैं इक गीत लिखूँ
ओढ़ चाँदनी, पुरबा मन के आँगन में लहराये
फागुन खेतों में सावन की मल्हारों को गाये
लिखूँ नये अनुराग खनकती पनघट की गागर पर
लिखूँ कि चौपालों पर बाऊल, भोपा गीत सुनाये
चातक और पपीहे का बन कर मनमीत लिखूँ
बहुत दिनों से सोच रहा हूँ मैं इक गीत लिखूँ
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6 comments:
इतना बढिया गीत तो आपने लिख दिया !
प्रत्यक्षा
वाकई आप में एक अच्छे गीतकार की आत्मा है । मैं आपके गीतों को संपूर्णतः पढना चाहता हूँ । तब कुछ उनपर लिखना भी चाहता हूँ । बधाई स्वीकारें भाई जी । कभी-कभार मेरा ब्लाग देख लेंवे । या फिर www.jayprakashmanas.info । आपको यहाँ हिन्दी की समकालीन ललित निंबधों का रस मिल सकता है । शेष फिर कभी ।।।।।
बहुत दिनों से सोच रहा हूँ कोई गीत लिखूँ
इतिहासों में मिले न जैसी, ऐसी प्रीत लिखूँ
मैं भी इंतजार करूंगा !
हम उस गीत का इन्तजार करेंगे । हाँ, यदि आप इस बीच में वो लिख चुके हैं तो बताईये कहाँ पढें ।
गीत जिसको ढूँढता तू, तेरे ह्रदय में व्याप्त है
तू माँगता जिसको, स्वत: तुझको तेरा बन प्राप्त है ।
जब जलेगा प्रीत में और मीत खुद बन जायेगा
प्राण होंगे दग्ध तब, तू गीत वो लिख पायेगा ।
"कोई रीत न हो ऐसी जो हो जानी पहचानी "
!!!!!
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