आ गया है आज फिर इतिहास से उठ कत वही दिन
और फिर उस पर मुलम्मा हम चढ़ाते जा रहे हैं
उत्तरों की कर प्रतीक्षा प्रश्न ने दम तोड़ डाला
पंच वर्षी स्वप्न का इस बार भी है रंग काला
वायदों के शब्द अंबर में टँगे बन कर सितारे
चाँद का साया नहीं पाया, गगन कितना खंगाला
शुष्क आँखों में न कण भी अश्रुओं का शेष बाकी
शून्य के साम्राज्य में हर कामना है छटपटाती
व्योम की हर वीथि का अवरोध गिद्धों ने किया है
एक गौरैया सहज सी आस की भी उड़ न पाती
फ़र्क क्या पड़ता किसी को , हो खरा, खोटा भले हो
माँग सिक्के की, जिसे हम सब चलाये आ तहे हैं
नीम की शाखाओं पर आ धूप तिनके चुन रही है
बाँसुरी शहनाईयों की मौन सरगम सुन रही है
बादलों के चंद टुकड़ों की कुटिल आवारगी के
साथ मिल षड़यंत्र, झालर अब हवा की बुन रही है
फूल के संदेश माली कैद कर रखने लगा है
योजना के चित्र पर फिर से सपन उगने लगा है
मच रहे हड़कंप में बाजी उसी के हाथ लगती
जो दिये को नाग के फन पर यहाँ रखने लगा है
स्वर्ण-पल के आठवें वर्षाभिनन्दन का समारोह
किन्तु हम फिर भी मनाते जा रहे हैं, गा रहे हैं.)
राकेश खंडेलवाल
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1 comment:
आज फिर शुरू से कक्षा में आये हैं गुरुजी :)
"फ़र्क क्या पड़ता किसी को , हो खरा, खोटा भले हो
माँग सिक्के की, जिसे हम सब चलाये आ रहे हैं"
--अब समझ आया किसी की एक टिप्पणी का मतलब !
"नीम की शाखाओं पर आ धूप तिनके चुन रही है
बाँसुरी शहनाईयों की मौन सरगम सुन रही है
बादलों के चंद टुकड़ों की कुटिल आवारगी के
साथ मिल षड़यंत्र, झालर अब हवा की बुन रही है
फूल के संदेश माली कैद कर रखने लगा है
योजना के चित्र पर फिर से सपन उगने लगा है
मच रहे हड़कंप में बाजी उसी के हाथ लगती
जो दिये को नाग के फन पर यहाँ रखने लगा है"
--ये इतना सुन्दर लिखा है कि क्या कहें :)
"स्वर्ण-पल के आठवें वर्षाभिनन्दन का समारोह"
--आठवें कैसे?? क्या अमरीका आये आठ साल हो गये थे ?
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