दीप बन कर नयन में जले जो सपन
आज तुमसे उन्हीं की कहानी कहूँ
पीर जो होंठ को अब तलक सी रही
बात उसकी उसी की जुबानी कहूँ
पोर की मेंहदियों ने छुये बिन कभी
बात गालों पे लिख दी मचलते हुए
एक मौसम बिताया समूचा उसे
ध्यान देकर तनिक सा, समझते हुए
पर लिखी मध्य में शब्द के जो कथा
उसका वृत्तांत आया समझ में नहीं
यूँ लगा जितना अब तक समझ पढ़ सके
उससे दुगना उसी में छुपा है कहीं
कितनी गाथायें हैं,ग्रंथ कितने बने
जब कपोलों ने पाई निशानी कहूँ
एक चितवन छिटक ओढ़नी से जरा
द्वार नयनों के आ खटखटा कर गई
सांवरी बदलियों की थीं सारंगिया
पास आकत जिन्हें झनझना कर गई
कंठ का स्वर तनिक शब्द को ढालता
पूर्व इससे हवायें उड़ा ले गईं
कमसिनी गंध के मंद आभास सी
उंगलियां एक प्रतिमा छुआ के गई
इस नये रूप में इक नये ढंग में
बात हो चाहे कितनी पुरानी कहूँ
बिम्ब वे फिर सभी अजनबी हो गये
जुड़ न पाई कहीं कोई पहचान भी
एक अपनी कसक जो सदा संग थी
वो भी ऐसे मिली जैसे अनजान थी
टूट बिखरी हुई आरसी कोशिशें
कर थकी एक तो चित्र उपहार दे
तार टूटे हुए बोलने लग पड़ें
उंगलियां ढूंढते वे जो झंकार दे
एक सूनी प्रतीक्षा लिये आँख में
किस तरह बीती सारी जवानी कहूँ
5 comments:
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन बेचारा रुपया - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
वाह....
बहुत सुन्दर गीत...
सादर
अनु
गहन संदेस देती बेहतरीन प्रस्तुति.आभार.
एक सूनी प्रतीक्षा लिये आँख में
किस तरह बीती सारी जवानी कहूँ
--वाह... बेहतरीन!!
अहा, बहुत ही सुन्दर गीत..पढ़कर बस उसमें उतर जाने का मन करता है।
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