तो गीत बन के सँवर गया है

तुम्हारी सांसों के झुरमुटों से चला जो मलयज का एक झोंका
अधर की मेरे छुई जो देहरी तो गीत बन के सँवर गया है
 
जो वाटिका की लगी थीक्यारी में राम तुलसी औ’ श्याम तुलसी
रुका था उनकी गली में जाकर न जाने क्या बात करते करते
बढ़ा के बाँहे समेटता था उड़नखटोले वे गन्ध वाले
जो पांखुरी से हवा की झालर चढ़े थे शाखों से झरते झरते
 
कली कली पलकें मिचमिचाकर इधर को देखे उधर को देखे
ना प्रश्न कोई ये बूझ पाये वो इस तरफ़ से किधर गया है
 
नदी के तट जा लहर को छू के है छेड़ता नव तरंगें जल में
झुके हुये बादलों की सिहरन को अपने भुजपाश में बांध कर के
मयूर पंखों की रंगतों के क्षितिज पे टाँके है चित्र कोई
दिशाओं की ओढ़नी है लपेटे उधार संध्या से माँग कर के
 
उतरती रजनी का सुरमईपन परस का पारस बटोर कर के
उषा में प्राची की अल्पना बन अकस्मात ही निखर गया है
 
पहन के उंगली में मुद्रिका कर चमक नथनियां के मोतियों की
अधर की लाली का कल्पनामय दुशाला लेकर सजाये कांधे
सुरों की नटखट सी चहलकदमी से अपनी गति कर समानुपाती
ये भोर संध्या में दोपहर में नित रागिनी इक नई अलापे
 
भरी सभा में तुम्हारा लेकर के नाम बोई सी सरगमो को 
प्रथम से सप्तम तक टांक कर के नए सुरों में बिखर  गया है 

4 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

किस मौसम में भाव तुम्हारे गीत बन गये,
वे धड़कन कण, आश्रय पा, संगीत बन गये।

ब्लॉग बुलेटिन said...

ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन भारत के इस निर्माण मे हक़ है किसका - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

ANULATA RAJ NAIR said...

सुन्दर शब्द संयोजन....

आभार
अनु

शिवम् मिश्रा said...

जन्मदिन की हार्दिक बधाइयाँ और शुभकामनायें स्वीकार करें सर !

(२ दिन की देरी के लिए तहे दिल से माफी चाहूँगा)

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