चाहा तुम्हें लिखूं तुम हो नभ का विस्तार सितारा हूँ मैं
चाहा कहूँ तुम्हें सागर-जल का भंडार किनारा हूँ मैं
चाहा तुमको लिखदूं तुम निस्सीम, दायरे में मैं बन्दी
लिखूँ अक्षुण्य निरन्तर तुमको हो हरबार, दुबारा हूँ मैं
लिखने लगी कलम लिख डाला तुम तुम ही हो, तुम ही हो मैं
तुम्हें नहीं परिचय आवश्यक और तुम्ही हो मेरा परिचय
तुमने ही तो कहा समय हो तुम गतिमान, रुके हो पल छिन
तुम ही जड़ हो, तुम ही चेतन, तुम ही निशा और तुम ही दिन
एक अकेले तुम ही नश्वर, तुम ही क्षण तुम ही क्षण्भंगुर
तुम अनादि हो, आदि तुम्ही हो और एक तुम ही गूँजा सुर
ज्ञानदीप की ज्योति तुम्ही हो और तुम्ही हो उपजा संशय
तुम्हें नहीं परिचय आवश्यक और मेरा भी तुम ही परिचय
मैं क्या लिख पाऊंगा तुमको, तुम ही शब्द तुम्ही अक्षर हो
तुम ही एक दानकर्ता हो तुम ही तो याचक का कर हो
तुम ही कालनिशा का तम हो, तुम अंधियारा अज्ञानों का
तुम एकाकी ज्योतिपुंज हो, तुम प्रकाश नव विज्ञानों का
तुम ही तो पल पल पर विचलित, तुम्ही तो हो तन्मय चिन्मय
तुम्हें कहां परिचय आवश्यक , तुम परिचय का भी हो परिचय
उल्का भी तुम, धूमकेतु तुम, तुम अनदेखे श्याम विवर हो
तुम नभ की मंदाकिनियों में प्राण प्रवाहक इक निर्झर हो
तुम हो यहाँ, वहाँ भी तुम हो और जहाँ तक उड़े कल्पना
तुम्हीं ध्यान हो तुम्ही साधना, तुम्ही वन्दना तुम्ही अर्चना
एक तुम्हीं असमंजस के पल और तुम्ही तो हो दॄढ़ निश्चय
तुम्हें विदित है सबका परिचय और तुम्हारा सब को परिचय
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7 comments:
उससे कैसा परिचय पाना,
जो मेरा ही परिचय हो।
प्राण-प्रवाहक,इस साधक की,
तुम ही जन्मेजय हो।।
हमेशा की तरह ही यह रचना भी बहुत सुंदर लगी।
मैं क्या लिख पाऊंगा तुमको, तुम ही शब्द तुम्ही अक्षर हो
तुम ही एक दानकर्ता हो तुम ही तो याचक का कर हो
तुम ही कालनिशा का तम हो, तुम अंधियारा अज्ञानों का
तुम एकाकी ज्योतिपुंज हो, तुम प्रकाश नव विज्ञानों का
अति सुन्दर लिखा है
इतनी खूबसूरत पंक्तियों की तारीफ़ कैसे करूँ समझ नहीं आता...आपके बिम्ब भी बिलकुल अनछुए से होते हैं...बहुत सुन्दर है ये कविता भी...हमेशा की तरह
मैं क्या लिख पाऊंगा तुमको, तुम ही शब्द तुम्ही अक्षर हो
तुम ही एक दानकर्ता हो तुम ही तो याचक का कर हो
तुम ही कालनिशा का तम हो, तुम अंधियारा अज्ञानों का
तुम एकाकी ज्योतिपुंज हो, तुम प्रकाश नव विज्ञानों का
हमेशा की तरह दिल को छूती हुई लगी आपकी यह रचना भी
इस सुन्दर गीत को पढ़ते समय...पंडित छन्नूलाल की स्वर में सुनी उस गीत का स्मरण हो आया,जिसमे दही बेचती हुई ग्वालिने आत्म्व्स्मृति की अवस्था में '" दधि लो ,दधि लो" के बदले "हरि लो,हरि लो" पुकारने लगती हैं......
भेजी आप पर माता सरस्वती की असीम अनुकम्पा है........ये समस्त गीत उसका साक्षात प्रमाण हैं...
नत मस्तक!!!
अब सर उठाऊँ तब ना कुछ लिखूं इस कविता के बारे में !!
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"लिखूँ अक्षुण्य निरन्तर तुमको हो हरबार, दुबारा हूँ मैं"
"एक अकेले तुम ही नश्वर, तुम ही क्षण तुम ही क्षण्भंगुर"
"ज्ञानदीप की ज्योति तुम्ही हो और तुम्ही हो उपजा संशय
तुम्हें नहीं परिचय आवश्यक और मेरा भी तुम ही परिचय"
"तुम ही एक दानकर्ता हो तुम ही तो याचक का कर हो"
"तुम ही तो पल पल पर विचलित, तुम्ही तो हो तन्मय चिन्मय
तुम्हें कहां परिचय आवश्यक , तुम परिचय का भी हो परिचय"
"उल्का भी तुम, धूमकेतु तुम, तुम अनदेखे श्याम विवर हो
तुम नभ की मंदाकिनियों में प्राण प्रवाहक इक निर्झर हो"
"एक तुम्हीं असमंजस के पल और तुम्ही तो हो दॄढ़ निश्चय
तुम्हें विदित है सबका परिचय और तुम्हारा सब को परिचय"
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माँ सरस्वती ने आपको ९९/१०० नंबर दे दिए होंगे गुरुजी आज तो :)
बहुत EXP बहुत सुन्दर !!
एक बात कहती हूँ, ऎसी कवितायें बार बार पढने को नहीं मिलतीं . क्योंकि केवल केवल श्वेत नहीं श्याम भी है ये कविता. केवल उच्चतम का पूजन नहीं, न्यूनतम का स्वीकार्य भी है इसमें. इसे याद कर के, हो सकेगा तो रिकार्डिंग कर के भेजूंगी.
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पहली पंक्ति में "वितार" को "विस्तार" कर लीजियेगा जब भी समय मिले :)
सादर प्रणाम !
थोड़ा हमारी भी सिफ़ारिश कर दीजिये ना माँ शारदा से :)
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