बड़ी दूर का सदेशा इ

बड़ी  दूर का सदेशा इक बाँसुरिया की टेर पकड़ कर
गिरती हुई ओस की गति से पुरबा के संग बहता आया 

​गंधों की मचली लहरी की लहर लहर में घुला हुआ सा 
सावन की पहली फुहार में भीग भीग कर धुला हुआ सा  ​
क्षिति के सिरे चमकती सोनहली किरणों की आभायें ले 
खोल सके मन का वातायन, इस निश्चय पर तुला हुआ सा 

गलियारे   के   द्वार   बंद थे, पहरे लगे हुए राहों में 
फिर भी तोड़ सभी बाधाएं धीमे से आँगन में आया 

संदेशों में गुंथी हुई थी मन की कल्पित अभिलाषाएं
अक्षर अक्षर में संचित थी युगों युगों कु प्रेम कथाए
वासवदत्ता और उदयन की, साथ साथ नल दमयंती की
साम्राज्यों की रूप प्रेम के करता आ असीम सीमाएं

जल तरंग के आरोहों के अवरोहो के मध्य कांपती
उस ध्वनि की कोमलता में लिपटा लाकर संदेश सुनाया

 बड़ी दूर का संदेशा वह आया था बिन संबोधन के
और अंत में हस्ताक्षर भी अंकित नही किसी प्रेषक के 
क्या संदेशा मेरे  लिए है या फिर किसी और का भटका
उठे अचानक प्रश्न अनगिनत, एक एक कर रह रह कर के

बड़ी दूर का संदेशा।    यह देश काल की सीमाओं से
परे ,रहा है किसका, किसकी खातिर है ये समझ न आया
 

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