दृष्टि अपनी बिछाये प्रतीक्षा रही, एक दीपक जला कर रखे द्वार पर
दिन के दरवेश ढलती हुई सांझ मैं लौट कर के गली में चले आएंगे
अंश पाथेय के मुँह मसोसे रहे भोर उनकी न उंगली पकड कर चली
और पूरा हुआ एक सपना नहीं कर सकें तय बिछी राह की दूरियां
सूर्य का रथ सजे इससे पहले सजे आतुरा नैन में स्वप्न आंजे हुये
राह में अग्रसर हो रहे पांव ने दी नहीं किन्तु पल की भी मंजूरियां
एक दीपक जला कर रखा आस का कल नई भोर में होंगे संकल्प नव
और यायावरी मन नई राह के साथ उनका निभाने चले आएंगे
भग्न
मन्दिर की खंडित पडी मूर्तियां रह गई है उपेक्षित पुनः शाम को
आस्था की पकड़ डोर चलते हुए हाथ छूते नहीं घंटियों का सिरा
वाटिकाएँ उजड़ कर हुई ठूंठ बस, तितलियाँ औ मधुप दूर ही रह गए
एक युग हो गया पाँव पर मूर्ती के फूल कोई कभी जब था आकर गिरा
फिर भी विश्वास है एक दिन तो कभी, कोई दीपक जलाकर रखेगा यहां
फिर समय करवटें जब बदल कर चले, भाग्य बिगड़े हुए भी संवर जाएंगे
तुलसी अंगनाई की सूख कर झर गईं बिन पिये जल, समेटे हुये आरती
एक दीपक जला कर न चौरे रखा, सांझ आई, थी, मूम्ह मोड़ फ़िर से गई
ंंत्र के बोल होंठों से रूठे रहे कोई संकल्प की आंजुरि न भरी
और
एकांत टिक टिक किये जा रही, लटकी दीवार पर की घड़ी की सुई
फिर भी विश्वास की इक किरण जागती, एक दीपक जला कर रखेगा कोई
संस्क्रुति की धरोहर बने वांन्मय, फिर्र अधर पर सजे गीत बन जायेंगे
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