ढूँढती मुस्कान मेरी

नींद में भी जाग में भी रात में या हो उजाला
 जानता हूँ एक तू थी  ढूँढती मुस्कान मेरी

उम्र के इस मोड़ पर मैं हो रहा खुद से अपरिचित
रह गया हूँ वृक्ष में उलझी पतंगों के सरीखा
‘कौंधती हैं दामिनी बन कर वही बातें पुन: अब
थी सिखातीं ज़िन्दगी में राह चुनने का सलीका

तू सखा थी, तू गुरू थी, तू रही आराध्य मेरी
दूर तुझसे खो गई इस मोड़ पर पहचान मेरी

जानता है कौन उसका मोल जो उपलब्ध हर पल
दूरियों से बोध होती कीमतें सान्निध्य पल की
आज पूरी भौतिकी है एक उस पल पर निछावर
जिस घड़ी में गोद तेरी सहज मेरे पास में थी 

आज उस मृदु छाँह से वंचित हुई सुधियाँ तरसती
दूर तक फ़ैली हुई हर राह है सुनसान मेरी

खींचती बीते पलों की उंगलियां वापिस ह्रदय को
फिर उन्ही खोई हुई अमराइयों में लौट जाये
और फ़िर ममता भरे आकाश की ओड़े दुशाला
लोरियों की सरगमों में जाये फिर डुबकी लगाये

ज़िन्दगी को फिर रदीफ़ो-काफ़िये का मिल सके क्रम    
चाह  है  फिर  से  बने  तू  गज़ल का उन्वान मेरी


साधना संकल्प श्रद्धा और निष्ठा के सुमन पल
उग गए जो क्यारियों में उम्र की रंग आस्था से
प्रेम और सौहार्द में डूबा हुआ आदर परस्पर
और सीमाये जुडी संतुष्टि की हर कामना से

संस्कृतियों की प्रणेता और शिक्षक ज्ञान की तू
गीतमय  गोविन्द तू ही आन  तू ही  शान मेरी


3 comments:

Udan Tashtari said...

संस्कृतियों की प्रणेता और शिक्षक ज्ञान की तू
गीतमय गोविन्द तू ही आन तू ही शान मेरी..Sunder

sameer said...

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