बज रही है मौसम की बांसुरी कहीं जैसे


बादलो के टुकड़े आ होंठ पर ठहरते हैं
किसलयो से जैसे कुछ तुहिन कण फिसलते हैं
उंगलियां हवाओं की छू रही हैं गालों को
चांदनी के साये आ नैन में उतारते हैं
बात एक मीठी सी कान में घुली जैसे
हौले हौले बजती  हो बांसुरी कहीं जैसे

टेसुओं  के रंगों में भोर लेती अंगड़ाई
चुटकियाँ गुलालों की प्राची की अरुणाई
सरसों के फूलों का गदराता अल्हड़पन
चंगों की थापों पर फागों की शहनाई
आती हैं पनघट से कळसियां भरी ऐसे
हौले हौले बजती हो बांसुरी कहीं जैसे

उठती खलिहानों से पके धान की खुशबू
मस्ती में भर यौवन आता है नभ को छू +
गलियों में धाराएं रंग की उमंगों की..
होता है मन बैठे ठाले ही बेकाबू
बूटों की फली भुनी मुख में घुली ऐसे
हौले हौले बजती हो बांसुरी कहीं जैसे

लहराती खेतों में बासंती हो  चूनर
पांवों को थिरकाता सहसा ही आ घूमर
नथनी के मोती से बतियाते बतियाते
चुपके से गालों को चूमता हुआ झूमर
याद पी के चुम्बन की होंठ पर उगी ऐसे
हौले हौले बजती हो बांसुरी कहीं जैसे

2 comments:

Udan Tashtari said...

अद्भुत!!!

madhoolika said...

vaah

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...