कितने दिन बीते

एक बात को ही दुहराते कितने दिन बीते
 
भोजपत्र पर बात वही होती आई अंकित
शिल्पकार ने पाषाणों में जिसे किया शिल्पित
जिसकी अर्क सुधा बरसाते मेघ कलश रीते
 
कविता और कहानी सबमें वह ही दुहराई
सरगम ने हर एक साज पर बस वह ही गाई
तुम को रहा सुनाता मैं भी वह ही मनमीते
 
दिवस महीने साल युगों के इतिइहासों में बन्द
वह ही महका करती है फूलों में बन कर गंध
जिसकी परछाईं में रहकर   भावुक मन जीते
 
उसी बात को बस दुहराते इतने दिन बीते

2 comments:

Udan Tashtari said...

Duhrate chaliye...

DOT said...

Thank you sir. Its really nice and I am enjoing to read your blog. I am a regular visitor of your blog.
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