द्रष्टि का आकाश मेरे सामने रीता पडा है
और पीछे पंथ पर है चिह्न कोई भी न बाकी
उँगलियों के बीच में से सब फिसल कर गिर गए हैं
वे समय की रेत के कण जो कभी अपने कहे थे
जब चढ़े गिरि श्रूंग पर देते चुनौती गगन को थे
और गतिमय हो समय की धार से आगे बहे थे
किन्तु अब इस मरुथली वातावरण में हर कदम पर
नैन रह रह देखते हैं हाथ की खाली सुराही
गूंथ कर रक्खी हुई थी परिचयों की डोरियाँ जो
खुल गई हैं टूट कर धागे हुई छितरा गई हैं
आईने के मैं शून्य में से मौन रह रह चीखता है
उंगलियाँ जो मुट्ठियों में थीं,सभी बिसरा गई हैं
और आवारा भटकती साध आतुर हो निरंतर
लौट कर के थामती है आप ही अपनी कलाई
हाथ की रेखाओं ने आकार जितने भी बनाए
रंग की अनुभूतियों से रह गए होकर पर वो
बाढ़ में उफनी नदी में बह रही है तृण सरीखी
ज़िंदगी को देखता है मन विवश तट पर खड़े हो
चित्र बन सजने लगी हैं सामने आकर क्षितिज पर
वे ऋचाएं जो अधर ने एक पल न गुनगुनाई
1 comment:
bahut umda!!
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