रूप की धूप --------चाहे कुछ हो लिखी इबारत

रूप की धूप
 
आपके रूप की धूप को चूम कर और उजली हुईं रश्मियाँ भोर की
आपका स्पर्श पा गूँजने लग गई आप ही बाँसुरी श्याम चितचोर की
आपके कुन्तलों की घटायें घिरीं सावनी हो उमंगें लगी झूमने
आस ऐसा लगा पूर्ण होने लगी, बिन लगाये हुए आस मनमोर की
 
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चाहे कुछ हो लिखी इबारत
 
 
बहती हुई हवायें आकर जब छूती हैं मेरी बाँहें
स्पर्श तुम्हारी उंगलियों के सहसा याद मुझे आते हैं
और मचलने लगते हैं वे आ आ कर अधरों पर मेरे
कलियों की गलियों में भंवरे जो भी  गीत गुनगुनाते हैं
 
ओ शतरूपे, जब भी पढ़ता हूँ किताब मैं कोई खोले
नाम तुम्हारा बन जाती है, चाहे कुछ हो लिखी इबारत
 
नयनों की झीलों में तिरती हैं जो अक्षर की नौकायें
उनके पालों पर रँगती हैं चित्र लहर होकर प्रतिबिम्बित
किरन दॄष्टि की बनकर कूची जब उनको सहलाने लगती
अनायास ही नाम तुम्हार हो जाता उन सब में  शिल्पित
 
मॄगनयने  ! इक धनुर्धरी के लक्ष्य् भेद के बिन्दु सरीखा
नाम तुम्हारा थामे रहता है मेरी सुधियों की सांकल
 
संध्या की देहरी पर आकर ठहरी है जब  निशा उतरती
और क्षितिज के वातायन से तारे जब झांका करते हैं
उस पल उमड़े हुए धुंये की बलखाती हर परछाईं में
जितने भी आकार उभरेते नाम तुम्हारा ही बनते हैं
 
मधुमीते ! मंदिर की आरति के उद्घोषित शंख स्वरों में
सरगम केवल नाम तुम्हारा गाया करती है इठलाकर
 
कलम हाथ में आकर मेरे जब जब भी मचली शतरूपे
तब तब स्वयं उभर आता है पॄष्ठ पॄष्ठ पर नाम तुम्हारा
कभी गीत में ढल जाता है, ओढें घूँघट कभी गज़ल का
नज़्मों की पैंजनिया बनकर कभी गुँजाता घर चौबारा
 
सुमनांगे ! हैं शब्दकोष के सारे शब्द समाहित जिसमें
नाम तुम्हारा, जिस पर आधारित भाषा की हुई इमारत
 

2 comments:

Rajendra kumar said...

बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति, धन्यबाद।

Rajendra kumar said...

नमस्कार
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आपका स्नेहकांक्षी

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