लिख देती है भोर गगन में उठते सब प्रश्नों के उत्तर
किन्तु ढूँढ़ने में ही उनको सारा दिवस बीत जाता है
मानचित्र तो सौंप चुका है हमें परीक्षक पहले से ही
अंकित की हर राह हथेली पर रेखायें खींच खींच कर
किन्तु दिशा का ज्ञान दे सके, कुतुबनुमा है परे पहुँच के
कोई चिह्न नहीं दिखता है आंख खोलकर,पलक मींच कर
मन उद्देश्यहीन रह जाता,किंकर्त्तव्यविमूढ़ हुआ बस
केवल पागल बंजारे सा होकर खड़ा गीत गाता है
मान उदीची चले जिसे हम,पूरब कभी कभी थी पश्चिम
चलती रहीं दिशायें बदले रूप वृत्त में ही ढल ढल कर
कब ईशान बनी थी दक्षिण,कब आग्नेय प्रतीची होती
प्राची रही सदा ही उठते हुये पगों से अनबन कर कर
अभिमंत्रित कर फ़ेंके पासे,अभिलाषा ले विजयश्री की
शातिर समय किन्तु हर बाजी उपक्रम बिना जीत जाता है
खिंची हुई हैं गंतव्यों तक, सोचे थे जितनी रेखायें
उनकी इति भी उद्गम ही है,नहीं कभी यह समझ आ सका
और जिसे गंतव्य समझते रहे, वही प्रारम्भ रहा था
उत्तर तो थे सन्मुख केवल प्रश्न हाथ में नहीं आ सका
उषा नित्य थमाती तो है निष्ठा भर संकल्प कलश में
लेकिन संध्या के आने के पहले कलश रीत जाता है
2 comments:
स्वप्नों के विस्तार को दिन में समेटने का श्रम क्रम हमें बढ़ाता रहता है।
Adbhut!
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