लिख रही है रोज ज़िन्दगी
पीर की नई कहानियाँ
कैनवस
पे रह गये टँगे
रंगहीन
एक चित्र की
अजनबी
बना हुआ मिला
बालपन
के एक मित्र की
रेत
की तरह फ़िसल गई
हाथ
में खिंची लकीर की
बँध
के एक द्वार से रहा
भ्रम में खो गये फ़कीर
की
चुन
रही है रोज ही नई
सिन्धु तट पड़ी
निशानियाँ
लिख
रही है गीत से विलग
अन्तरे
की अनकही व्यथा
रहजनी
से गंध की ग्रसित
पुष्प
की अव्यक्त इक कथा
होंठ
की कगार से फ़िसल
बार
बार शब्द जो गिरा
लिख
रही है धूँढ़ते हुये
गुत्थियों में खो गया
सिरा
कह गई
लिखा अपूर्ण है
सांझ करती मेहरबानियाँ
मोड
पर जो राजमार्ग के
पांव
रह गये रुके,डरे
रह गये
पलक की कोर पर
अश्रु
जो कभी नहीं झरे
रह
गया सिमट जो मौन की
पुस्तकों
में, एक गीत की
छार
छार होके उड़ रही
दादा दादियों की रीत की
लिख
रही हिसाब, लाभ बिन
बढ़
रही हैं रोज हानियाँ
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