आ गए अंगनाई में फिर से उतर कोहरे घनेरे
आज फिर से दोपहर ने साथ मेरे छल किया है
भोर के पट जा किरण ने रोज ही थे थपथपाये
नींद से जागे, सुनहरी रूप आ अपना दिखाये
और प्राची से निरन्तर जोड़ते सामंजसों को
स्वर प्रभाती के नये कुछ छेड़ स्वर अपना मिलाये
किन्तु जागी भोर जब आई उतर कर देहरी पर
तो लगा जैसे किसी ने तिमिर मुख पर मल दिया है
रोशनी को ढूँढ़ते पथ में दिवस आ लड़खड़ाता
बायें दायें पृष्ठ जाता और फिर पथ भूल जाता
सोख बैठी है सियाही बाग झरने फूल पर्वत
एक सन्नाटा घिरा चहुँ ओर केवल झनझनाता
फ़ैलता विस्तार तम का हो गया निस्सीम जैसे
एक ही आकार जिसने घोल नभ में थल दिया है
खो चुकी सारी दिशायें, क्या कहाँ है क्या यहाँ है
और जो भी पास होने का भरम, जाने कहाँ है
मुट्ठियों ने क्या समेटा क्या फ़िसल कर बह गया है
जो अपेक्षित है , नजर जाती नहीं है बस वहाँ है
वह सुनहरा स्वप्न जिसके बीज बोये नित नयन ने
रात की पगडंडियों पर पार जाने चल दिया है
रात की पगडंडियों पर पार जाने चल दिया है
2 comments:
बड़ी ही प्रभावी अभिव्यक्ति।
प्रभावशाली अभिव्यक्ति
Post a Comment