दीप दीपावली के जलें,रोशनी
चारदीवारियों में न सीमित रहे
मन में खुशियों की उमड़ी हुई नर्मदा
तोड़ तटबन्ध सब,वीथियों में बहे
पंथ जिनको कभी अपने भुजपाश में
मानचित्रों ने बढ़ न सहारे दिये
जिनपे बिखरी हुई बालुओं के कणों
के प्रतीक्षाऒं में जल रहे हैं दिये
जिनसे परिचय नहीं प्राप्त कर पाये हैं
एक पल के लिये भी कदम आपके
दृष्टि में अपनी पाले हुये शून्यता
रह गये दूर हर एक आभास से
उन पथों की प्रतीक्षाओं का अन्त है
इस दिवाली पे स्वर आपका यह कहे
दीप दीपावली के जलें,रोशनी
चारदीवारियों में न सीमित रहे
दीप की ओट में छुप के जीता रहा
और सहसा ही तन कर खड़ा हो गया
वह तिमिर, एक झपकी पलक पर चढ़ा
और आकाश से भी बड़ा हो गया
इससे पहले कि वह और विस्तार ले
आप के,देश के,काल के भी परे
आओ प्रण लें कि इस वर्ष मिल हम सभी
उसके आधार के काट फ़ेंकें सिरे
खोखली नींव पर, रावणी दंभ का
शेष प्रासाद, इस ज्योति को छू ढहे
दीप दीपावली के जलें,रोशनी
चारदीवारियों में न सीमित रहे
उंगलियाँ जब उठायें बताशा कोई
याकि मुट्ठी कोई भी भरे खील से
फुलझड़ी की चमक हाथ में झिलमिले
रोशनी बात करती हो कंदील से
उस घड़ी ये न भूलें,कई हाथ हैं
जिनको इनका कभी भी परस न मिला
जिनकी अंगनाईयाँ होके बंजर रहीं
आस का जिन को कोई सिरा न मिला
आओ संकल्प लें आज हम तुम यही
उनकी आशा नहीं रिक्तता अब सहे
दीप दीपावली के जलें,रोशनी
चारदीवारियों में न सीमित रहे
चारदीवारियों में न सीमित रहे
मन में खुशियों की उमड़ी हुई नर्मदा
तोड़ तटबन्ध सब,वीथियों में बहे
पंथ जिनको कभी अपने भुजपाश में
मानचित्रों ने बढ़ न सहारे दिये
जिनपे बिखरी हुई बालुओं के कणों
के प्रतीक्षाऒं में जल रहे हैं दिये
जिनसे परिचय नहीं प्राप्त कर पाये हैं
एक पल के लिये भी कदम आपके
दृष्टि में अपनी पाले हुये शून्यता
रह गये दूर हर एक आभास से
उन पथों की प्रतीक्षाओं का अन्त है
इस दिवाली पे स्वर आपका यह कहे
दीप दीपावली के जलें,रोशनी
चारदीवारियों में न सीमित रहे
दीप की ओट में छुप के जीता रहा
और सहसा ही तन कर खड़ा हो गया
वह तिमिर, एक झपकी पलक पर चढ़ा
और आकाश से भी बड़ा हो गया
इससे पहले कि वह और विस्तार ले
आप के,देश के,काल के भी परे
आओ प्रण लें कि इस वर्ष मिल हम सभी
उसके आधार के काट फ़ेंकें सिरे
खोखली नींव पर, रावणी दंभ का
शेष प्रासाद, इस ज्योति को छू ढहे
दीप दीपावली के जलें,रोशनी
चारदीवारियों में न सीमित रहे
उंगलियाँ जब उठायें बताशा कोई
याकि मुट्ठी कोई भी भरे खील से
फुलझड़ी की चमक हाथ में झिलमिले
रोशनी बात करती हो कंदील से
उस घड़ी ये न भूलें,कई हाथ हैं
जिनको इनका कभी भी परस न मिला
जिनकी अंगनाईयाँ होके बंजर रहीं
आस का जिन को कोई सिरा न मिला
आओ संकल्प लें आज हम तुम यही
उनकी आशा नहीं रिक्तता अब सहे
दीप दीपावली के जलें,रोशनी
चारदीवारियों में न सीमित रहे
3 comments:
ज्योति का गुण है फैलना।
वाह! कितना समुज्ज्वल गीत है ये! कुछ अछूते से बिम्ब:
पंथ जिनको कभी अपने भुजपाश में, मानचित्रों ने बढ़ न सहारे दिये, जिनसे परिचय नहीं प्राप्त कर पाये हैं, एक पल के लिये भी कदम आपके. दृष्टि में अपनी पाले हुये शून्यता, रह गये दूर हर एक आभास से...अद्भुत!
उन पथों की प्रतीक्षाओं का अन्त है ... अनुपम!
वह तिमिर, एक झपकी पलक पर चढ़ा और आकाश से भी बड़ा हो गया. ..और विस्तार ले आप के, देश के,काल के भी परे... खोखली नींव पर, रावणी दंभ का शेष प्रासाद ... कितना सशक्त चित्रण!
...कई हाथ हैं जिनको इनका कभी भी परस न मिला. जिनकी अंगनाईयाँ होके बंजर रहीं, आस का जिन को कोई सिरा न मिला. आओ संकल्प लें आज हम तुम यही उनकी आशा नहीं रिक्तता अब सहे. दीप दीपावली के जलें, रोशनी चारदीवारियों में न सीमित रहे ---- आमीन!
नीरज जी की "जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना ..." याद आ गई!
आज से प्रारंभ हुए इन पावन पर्वों पे सपरिवार आपको प्रणाम गुरूजी!
सादर ...
Adbhut kayee baar padha aatmvibhor hokar| dhanya hai aapki lekhni |
shriprakash shukl
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