शारदा के कमल पत्र से गीतकलश पर झरी चारसौपचासवीं बूँद

कुछ भी तो नहीं बदला. सूरज आज भी आधी सुबह तक बादलों से ढका हुआ था.वादी में आज भी कोहरा उतरा हुआ था ,ट्रेफ़िक की भीड़ उसी गति से बढ़ रही थी और कैलेन्डर ने वैसे ही प्याज के छिलके की तरह एक और दिन उतार कर रख दिया था अलार्म उसी समय बोला था और दिनचर्या भी पिछले सप्ताह की कार्बन कापी बन कर रह गई थी पर फिर भी कुछ एक अजीब सा अहसास मन को घेरे हुए था.
काफ़ी देर असमंजसों से जूझने के बाद भी कुछ हासिल न हुआ तो माँ शारदा के श्री चरणों में सर झुका कर उनके कमल पत्र से एक बूँद चुन ली. वह बूँद गीत कलश पर कमल पत्र से उतरी हुई चारसौपचासवीं बूँद---आपके समक्ष प्रस्तुत है:-



आज फ़िर से लग गया है प्रश्न करने मन स्वयं से
प्राप्ति का संचय भला है किसलिये इतनी उदासी

तय किये कितने समन्दर रोशनी की आस लेकर
मिल गये कितने मरुस्थल पास का मधुमास देकर
पथ विजन की शून्यता ने, जड़ गये पगचिह्न जैसे
रिक्तता के फल समेटे,नीड़ में निर्वास लेकर

उड़ गये संकल्प होकर के धुंआसे आंधियों में
ज़िन्दगी हो रह गई बस वेद की अन्तिम ॠचा सी

मोड़ यह कैसा जहाँ पर घुल गईं हैं सब दिशायें
सोख लेता है गगन हर रात में बिखरी विभायें
मंदिरों मे शयन पल के जल रहे अंतिम दिये सी
कँपकँपाती,छटपटातीं शेष होकर कामनायें

नित्य ही उपलब्धियाँ मिलती रहीं, होकर निराशित
याचकों के लौटने पर होंठ से झरती दुआ सी

पा नहीं पाये समर्पण का कभी प्रतिकार कोई
राशिफ़ल की वीथियाँ,नक्षत्र के जा द्वार खोईं
ढल गईं इक वृत्त में रेखायें खींची जो स्वयं ही
हो गई कीकर सदा, निशिगन्ध जो हर बार बोई

हाथ में थैली थमाने के लिये तत्पर न कोई
ज़िन्दगी ने रख लिया है किन्तु कर हमको सवासी

अर्थ हर इक शब्द ने बदले हमारे द्वार आकर
मौन की झंकार छेड़ी बाँसुरी ने गुनगुनाकर
वक्र ही होकर निहारा रोशनी के सारथी ने
ले गया दहलीज से वह सात घोड़ों को बचाकर

स्वप्न के बिखरे हुए अवशेष की धूनी रचाकर
आचमन को ढूँढ़ती हैं नीर, हो आँखें रुआँसी

11 comments:

Udan Tashtari said...

जबरदस्त अभिव्यक्ति....वाह...क्या बात है...

प्रवीण पाण्डेय said...

४५० मोती हैं ये साहित्य जगत के।

Rajeev Bharol said...

लाजवाब गीत है राकेश जी.

Shardula said...

सादर प्रणाम! माँ सरस्वती आपने प्रिय पुत्र के इस संजीवन कलश को सदा शुभ्र और उत्तम गीतों से भरा रखें!
आपकी ४५०वीं स्वाति बूँद को पढ़ा, सराहा और एक बात समझी ...कि आपकी आदत है आपने भक्तों की परीक्षा लेने की:( ... जब भी कोई शुभ बेला होती है, कोई दुखभरा गीत लिख देते है! :(
माना बहुत सुन्दर, दार्शनिक गीत है... पर इतनी उदासी--- ये क्या बात हुई भला!!
इतनी डांट काफ़ी हुई :) ! ... उपलक्ष्य के परे, केवल गीत का रसास्वादन करुँ तो हर बिम्ब, हर पंक्ति, हर भाव, बहुत गहरा! अति सुन्दर!
एक बात कहें, इन पंक्तियों में सवासी का कोई अन्य अर्थ है या स+ वासी ही है?
"हाथ में थैली थमाने के लिये तत्पर न कोई
ज़िन्दगी ने रख लिया है किन्तु कर हमको सवासी"
बधाई, शुभकामनाएं, प्रणाम!

अनूप भार्गव said...

निशब्द कर देते हैं आप के गीत । इस के आगे क्या कहें । मां शारदे आप पर अपना वरद हस्त रखे रहे - यही कामना है .....

Udan Tashtari said...

450 वीं बूँद की बधाई...अभी तो पूरा सागर उतरना है....

मथुरा कलौनी said...

राकेश जी पंक्तियों में ऐसी गहन अकाट्य उदासी भरी हुई है कि पूछने को दिल करता कि कवि किस विजन पथ की बात कर रहा है और किस समर्पण का प्रतिकार चाहता है।

मोतियों का तो फिर भी मूल्य होता है पर आपने मोतियों को जिस हार में पिरोया है उसका मोल कौन ऑंक सकता है।

कविता की अंतिम दो पंक्तियॉं तो मुझे पूर्णतया अभिभूत कर गईं।

अजन्ता said...

सदा की भांति उद्वेलित कर देने वाली अनुपम अभिव्यक्ति..!
एक एक पंक्ति अपने आप में एक कविता है..
सादर,
अजन्ता

राकेश खंडेलवाल said...

ईमेल से प्राप्त--

गीतों से खनकता अक्षय धाम हो तुम
शब्दों के आगे बहे वह भाव हो तुम

तुम हो तो गीत कलश से अमृत छलकता रहेगा
जमीं तो नहाती है छन्दों से पर चान्द भी तकता रहेगा

अग्रजा,शुभकामनाओं सहित
मधु

Rakesh,

Please post it on Geet Kalash, I have tried but it did not post.

Madhu

राकेश खंडेलवाल said...

ई मेल द्वारा प्राप्त:-

Thanks Rakesh ji for sharing this beautiful piece.

"Prapti" (acquisition / earning /gain) howsoever big it might be, even then the heart always questions about 'Why not more'. You rendered it beautifully in your first two lines and then the follow up is great.

Satyapal Anand

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सुंदर और सराहनीय, राकेश जी! एक और बात सुखद लगी - रचना की पृष्ठभूमि पर लिखी गई आपकी सतरें. एक नम्र परामर्श है. गद्य भी लिखा करें.

सविनय
गुलशन मधुर

"अर्श" said...

सादर प्रणाम,
अपके लिये भले ही यह बून्द मात्र है, मगर मैं तो इसमे समन्दर की तरह गोते लगा रहा हूँ! वेसे मैं इस लायक तो नहीं कि कोई टिपण्णी कर पाउँ, मगर जब इन पंक्तियों को पढकर जाने किस बेचैनी से भर उठा...
मंदिरों मे शयन पल के जल रहे अंतिम दिये सी
कँपकँपाती,छटपटातीं शेष होकर कामनायें
.........

सादर

अर्श

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...