निश्शब्द ही होकर खड़ा हूँ

क्योंकि लिखने के लिये अब शेष कुछ भी तो नहीं है
कोष में थे शब्द जितने, हो चुके हैं खर्च सारे
भावनाओं की धरा पर बूँद तो बरसें निरन्तर
किन्तु जितने बीज बोये, रह गये हैं सब कुँआरे
इसलिये मैं मौन प्रतिध्वनियाँ समेटे अंजुरी में
आपके आ सामने निश्शब्द ही होकर खड़ा हूँ
 
थे दिये बहती हवाओं ने मुझे पल पल, निमंत्रण
उंगलियाँ अपनी बढ़ाईं थाम कर उनको चलूँ मैं
एक जो सदियों पुरानी ओढ़ रक्खी है दुशाला
फ़ेंक कर उसको नया इक आवरण निज पर रखूँ मैं
 
किन्तु मुझको बाँध कर जो एक निष्ठा ने रखा है
मैं उसी के साथ चलने की लिये इक ज़िद अड़ा हूँ
 
मुस्कुराती गंध भेजी थी बुलाने को कली ने
छेड़ कर वंशी बुलाया था लहर ने गुनगुनाकर
बादलों के कर हिंडोले व्योम ने भी द्वार खोले
और मधुबन मोहता था घुंघरुओं को झनझनाकर
 
किन्तु मैं अपनी विरासत में मिली कोई धरोहर
को बना कर कील अपने आप में जमकर पड़ा हूँ
 
खींचती है आज भी अनजान सी डोरी कहीं से
बाँधने को आज फ़िर आतुर कोई है पांव मेरे
सांझ की धुलती गली में सुरमई छींटे उड़ाता
टेरता है कोई फिर उस पार के मेरे सवेरे
 
किन्तु में अभिव्यक्ति की असमर्थता की शाख पर से
भाव के निष्प्राण पत्तों की तरह फ़िर फ़िर झड़ा हूँ.

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

इतनी सुन्दर रचना पर क्या कहें, हम भी निशब्द हैं।

***Punam*** said...

खींचती है आज भी अनजान सी डोरी कहीं से
बाँधने को आज फ़िर आतुर कोई है पांव मेरे
सांझ की धुलती गली में सुरमई छींटे उड़ाता
टेरता है कोई फिर उस पार के मेरे सवेरे

किन्तु में अभिव्यक्ति की असमर्थता की शाख पर से
भाव के निष्प्राण पत्तों की तरह फ़िर फ़िर झड़ा हूँ.

अप्रतिम....!!

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