पायल तो आतुर थी थिरके
बजी नहीं वंशी पर ही धुन
सूना रहा तीर यमुना का
कोई भी आवाज़ न गूँजी
फूल, कदम के तले बिछाये
रहे गलीचा पंखुरियों का
सिकता अभ्रक के चूरे सी
कोमल हुई और चमकीली
लहरों ने थी उमड़ उमड़ कर
दीं तट को अनगिन आवाज़ें
हुई सांवरी डूब प्रतीक्षा में
अम्बर की चादर नीली
पलक बिछाये बाट जोहता
था बाँहे फ़ैलाये मधुवन
लालायित था चूम पगतली
सहज लुटा दे संचित पूँजी
गोकुल से बरसाने तक था
नजरें फ़ैलाये वॄन्दावन
दधि की मटकी बिछी डगर पर
कहीं एक भी बार न टूटी
छछिया में भर छाछ खड़ी थी
छोहरियां अहीर की पथ में
नाच नचाती जिसको जाने
कहाँ गई कामरिया रूठी
भटक गया असमंजस में फ़ँस
मन का जैसे हर इक निश्चय
एक पंथ पर रहा प्रतीक्षित
दूजी कोई राह न सूझी
घुँघरू ने भेजे वंशी को
रह रह कर अभिनव आमंत्रण
संबंधों की सौगंधों की
फिर से फिर से याद दिलाई
प्रथम दॄष्टि ने जिसे लिख दिया था
मन के कोरे कागज़ पर
लिपटी हुई प्रीत की धुन में
वह इक कविता फिर फिर गाई
लेकिन रहे अधूरे सारे, जितने
किये निरन्तर उपक्रम
गुंथी हुई अनबूझ पहेली
एक बार भी गई न बूझी
5 comments:
कुछ पहेलियाँ पहेलियाँ ही बनी रहें, उसी बँधे भाव में आनन्दित रहे हम।
हे राम! इतना सुन्दर!!
अद्भुत...आनन्द आ गया.
अद्भुत...आनन्द आ गया.
अद्भुत प्रस्तुति
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