यों उधारी की हमको मिली ज़िंदगी

यों उधारी की हमको मिली ज़िंदगी

दिल्ली मेट्रो में दफ्तर को जाते हुए
धक्का मुक्की के नियमित हुए खेल सी
आफ सीजन में क्लीरेंस के वास्ते
हेवी डिस्काउंट पर लग रही सेल सी
बीस दिन बर्फ के बोझ से दब रही
लान की सूख कर मर गई घास सी
एक कोने में टेबुल के नीचे पडी
गड्डियों से जुदा हो गए ताश सी
ठण्ड में वस्त्र खोकर ठिठुरते हुए
एक गुमसुम अकेले खड़े पेड़ सी
हर किसी की छुंअन से अपरिचित रहे
टूट नीचे गिरे एक झरबेर सी

ज्यों फटी जेब हो अनासिली ,ज़िंदगी
थी उधारी की हमको मिली ज़िंदगी

शब्द के अर्थ की उँगलियों से विलग
पृष्ठ पर एक आधे लिखे गीत सी
पश्चिमी सभ्यता की चमक ओढ कर
भूली बिसरी पुरानी किसी रीत सी
दाग पहने हुए टोकरी से किसी
दूर फेंके हुए लाल इक सेव सी
रेडियो से बदल एक फ्रीक्वेंसी
हो प्रसारित नहीं जो सकी, वेव सी
बंद हो रह गई इक घड़ी से बजा
ही नहीं भोर के एक एलार्म सी
देखता ही नहीं कोई भी आ जिसे
बंद कमरे में बिखरे हुए चार्म सी
 
 
ठूंठ जैसी रही अनखिली ज़िंदगी
यों उधारी की हमको मिली ज़िंदगी
 
 
सीढि़याँ ले विरासत की चलता रहा
ब्याज दर ब्याज इक अनचुके कर्ज़ सी
दर्पणों को दिखाते हुए प्रश्न बन
सामने आ खड़े अननिभे फ़र्ज़ सी
इक स्वयंवर में टूटे धनुष की तरह
चौथ के चन्द्रमा के कलुष की तरह
कामनाओं के बोझों तले दब गिरे
स्वर्ग पाकर के राजा नहुष की तरह
एक पूजा के बासी हुए फूल सी
नित्य दुहराई जाती रही भूल सी
प्यास की आग में होंठ जलते लिये
एक नदिया के सूखे पड़े कूल सी
 
 
धूप मे, पापड़ों सी बिली ज़िन्दगी
यों उधारी सी हमको मिली ज़िन्दगी
 
 
ज़िंदगी मुझसे नजरें चुराती रही
दूर बैठे हुए मुस्कुराती रही
आज सहसा मेरे सामने आ गई
मुझको बैठे बिठाए हंसी आ गयी

4 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

खाली हाथ आये, वैसे ही जाना है, सब उधार चुकाना है।

Udan Tashtari said...

एक से एक जबरदस्त चित्रण हैं..वाह!!! क्या बात है...

शब्द के अर्थ की उँगलियों से विलग
पृष्ठ पर एक आधे लिखे गीत सी
पश्चिमी सभ्यता की चमक ओढ कर
भूली बिसरी पुरानी किसी रीत सी
दाग पहने हुए टोकरी से किसी
दूर फेंके हुए लाल इक सेव सी
रेडियो से बदल एक फ्रीक्वेंसी
हो प्रसारित नहीं जो सकी, वेव सी

डॉ. मोनिका शर्मा said...

ज़िंदगी मुझसे नजरें चुराती रही
दूर बैठे हुए मुस्कुराती रही
आज सहसा मेरे सामने आ गई
मुझको बैठे बिठाए हंसी आ गयी

खूब कहा ...बहुत गहरे अर्थ सहेजे है रचना

विनोद कुमार पांडेय said...

दाग पहने हुए टोकरी से किसी
दूर फेंके हुए लाल इक सेव सी
रेडियो से बदल एक फ्रीक्वेंसी
हो प्रसारित नहीं जो सकी, वेव सी

राकेश जी...आपने कविता में ऐसे ऐसे शब्दों का प्रयोग किया है जो कविता में बहुत ही मुश्किल होता है...वाकई कमाल की लेखनी....सुंदर कविता ..प्रणाम स्वीकारें

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