हवा में गन्ध आकर कोई मोहक लग गई घुलने
क्षितिज पर बादलों के बन्द द्वारे लग गये खुलने
धरा ने श्वेत परदों को हटा कर खिड़कियाँ खोलीं
गमकती ओस से पाटल कली के लग गये धुलने
नगर से मौसमों के दूर जाता है शिशिर का रथ
पुलकती चैतिया सारंगियां अब लग गईं बजने
लगे हैं कुनमुनाने पालने में शाख के पल्लव
हुआ आरम्भ फ़िर से पाखियों का भोर में कलरव
उठी है कसमसाकर, धार नदिया की लगी बहने
हवा को चूम पाना दूब को होने लगा सम्भव
अंगीठी सेक कर पाने लगी है धूप अब गरमी
बगीचे के सभी पौधे चढ़ा आलस लगे तजने
लगा है धूप का साम्राज्य विस्तृत और कुछ होने
सिमटने लग गया है अब निशा के नैन का काजल
सँवरने लग गये पगचिह्न निर्जन पंथ पर फिर से
विचरते हैं गगन में दूध से धुल कर निखर बादल
लगीं लेने उबासी तलघरों में सिगड़ियां जलतीं
उठे कम्बल स्वयं को लग पड़ें हैं ताक पर धरने
8 comments:
ऋतु की सुन्दर विवेचना।
सुन्दर चित्रण ..
फागुन का सुंदर चित्रण
बहुत खूब लिखा है! बधाई!
मौसम के बदलाव का बहुत सुन्दर तरीके से चित्रण ....
शुभकामनाये
मंजुला
भावपूर्ण , लयबद्ध सुन्दर रचना ......
चैतिया ......क्या कहना !
laybaddh rachna.
वाह वा!! बेहतरीन...
Post a Comment