प्रार्थना कर थकी छन्द की भूमिका
मुक्तकों ने कई बार आवाज़ दी
दोहे दस्तक लगाते रहे द्वार पर
सोरठे बन गये शब्द के सारथी
चन्द चौपाईयाँ चहचहाती रहीं
गुनगुनाती रही एक गम की गज़ल
थे सवैये प्रतीक्षा सजाये खड़े
बँध गया लय में अतुकान्त भी एक पल
भावना सिन्धु सूखा भरा ही नहीं
गीत कोई कलम से झरा ही नहीं
जो अलंकार थे अल्पना बन गये
भित्तिचित्रों में संवरी रही व्याकरण
देहरी रोलियों अक्षतों से सजी
कुछ अलग सा किये जा रही आचरण
पंथ जितने सुपरिचित रहे खो गये
दृष्टि का दायरा संकुचित हो गया
एक पल नाम जिस पर कभी था लिखा
वह न दिख पाया शायद कहीं खो गया
संचयित कोष जो था रखा पास में
वह कसौटी पे उतरा खरा ही नहीं
सांझ जब भी ढली नैन के गांव में
नींद आकर बजाती रही बांसुरी
तारकों की गली में भ्टकती रही
कोई संवरी नहीं स्वप्न की पांखुरी
याद के दीप जल तो गये अनगिनत
रोशनी वर्त्तिका में सिमट रह गई
जो सृजनशीलता है, कहीं खो गई
बात ये लेखनी से मसी कह गई
कल्पना अश्व अड़ कर खड़ा मोड़ पर
एड़ कितनी लगाईं बढ़ा ही नहीं
सांस करती तकाजा रही रात दिन
ज़िन्दगी उनकी मज़दूरियों को भरे
चक्रवॄद्धि हुआ ब्याज बढ़ता रहा
मूल तो हो रहा पीढियों के परे
हम थे असमर्थता की ध्वजायें लिय
बद्ध सीमाओं में छटपटाते रहे
और दिनमान सूखे हुए पात से
वर्ष की शाख से टूट जाते रहे
जो बही में लिखा वक्त ने, नाम था
देखा उसमें जमा था जरा भी नहीं
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6 comments:
अद्भुत!
ये हम कहें तो सही है..आप भला??
भावना सिन्धु सूखा भरा ही नहीं
गीत कोई कलम से झरा ही नहीं
-बह चले!
बहुत सुन्दर , आप भाव विहीन कहाँ हुए अब ये भाव कि गीत क्यों नहीं झरा , आप ने इस भाव को ही सुन्दर शब्द दे दिए |
उफ़...क्या कहूँ...... हृदयहारी अप्रतिम रचना....वाह !!!
are wah kya baat hai...!!
great..
excellent...
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