हर पल साथ रहे तुम मेरे

ओस में डूब कर फूल की पंखुड़ी भोर की इक किरण को लगी चूमने
गंध फिर तितलियों सी हवा में उड़ी, द्वार कलियों के आकर लगी घूमने
बात इतनी हुई एक पत्ता कहीं आपके नाम का स्पर्श कर आ गया
यों लगा आप चलने लगे हैं इधर, सारा उपवन खुशी से लगा झूमने
 
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पतझड़ के पहले पत्ते के गिरने की आहट से लेक
अंकुर नये फ़ूटने के स्वर तक तुम साथ रहे हो मेरे

जब जब ढलती हुई सांझ ने अपना घूँघट जरा निकाला
चन्द्रज्योत्सना वाले मुख पर इक झीना सा परदा डाला
उड़ी धुन्ध के धुंधुआसे दर्पण में चित्र संवारे मैने
और ओढ़नी से तारों की बिन्दु बिन्दु को रखा संभाला

बढ़ते हुए निशा के पथ में मैने रखा हाथ वह थामे
जिसकी शुभ्र कलाई छूकर अस्त हुए स्वयमेव अंधेरे

दिन का दीपक जला जिस घड़ी प्राची की पूजा थाली में
गंध उगाने लगी फूल जब सूखे कीकर की डाली में
दोपहरी आचमन कर गई बही धार के गंगाजल का
और तीसरा पहर अटक कर रहा पीतवर्णी बाली में

तब तब बन कर शलभ रहा मैं साथ ज्योति की अँगड़ाई के
नहीं मेघ की परछाईं फिर डाल सकी आंगन में डेरे

गति के चलते हुए चक्र में कोंपल फिर उगती झर जाती
और शेष हो रह जाती है एक बार जल कर के बाती
एक बार उद्गम से निकला नहीं लौटता कोई वापिस
और बात शब्दों में ढल कर बचती नहीं खर्च हो जाती

लेकिन साथ तुम्हारा मेरे संचय की इक अक्षय निधि है
तॄण भी एक न कम हो पाता बीते संध्या और सवेरे

7 comments:

Shar said...

:)

Udan Tashtari said...

लेकिन साथ तुम्हारा मेरे संचय की इक अक्षय निधि है
तॄण भी एक न कम हो पाता बीते संध्या और सवेरे

-क्या कहें...जबरदस्त अभिव्यक्ति!! बहुत खूब, राकेश भाई!!

विनोद कुमार पांडेय said...

राकेश जी एक बार फिर से धन्यवाद देना चाहेंगे लाज़वाब प्रस्तुति के लिए ..गीत के इस सम्राट को मेरा सादर नमन..

Anonymous said...

आभार

नीरज गोस्वामी said...

राकेश जी गलत बात है आप हर बार ऐसी अनूठी रचनाएँ हमें पढने को तो दे देते हैं लेकिन ये नहीं बताते की इनके लिए प्रशंशा के शब्द कहाँ से लायें...हमारे शब्द कोष में प्रशंशा के जो शब्द हैं वो सभी बौने हैं...
नीरज

Pushpendra Singh "Pushp" said...

सुन्दर रचना
इस अच्छी रचना के लिए
आभार .................

Shardula said...

अतिसुन्दर!
"पतझड़ के पहले पत्ते के गिरने की आहट से लेक
अंकुर नये फ़ूटने के स्वर तक तुम साथ रहे हो मेरे"
शायद यहाँ भी यह गीत ख़त्म हो जाता तो भी उतना ही सुन्दर लगता :) ... यही दो पंक्तियाँ सम्पूर्ण कविता हैं.
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"बढ़ते हुए निशा के पथ में मैने रखा हाथ वह थामे
जिसकी शुभ्र कलाई छूकर अस्त हुए स्वयमेव अंधेरे"
ये दो पंक्तियों को पढ़ के बहुत ही सुन्दर और शुभ्र सा चित्र बनता है ज़हन में.
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अंतिम छंद इतना सुन्दर है कि लगता है टिप्पणी लिखने से कहीं मैला न हो जाए.. सो बस नमन उसको!
आभार!
31Jan10

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...