रोशनी के चिबुक पे डिठौना लगा
रात जा छुप गई चाँदनी की गली
ओस की बून्द से बात करते हुए
मुस्कुराने लगी इक महकती कली
रश्मियां जाग जर नॄत्य करने लगीं
गीत गाने लगी गुनगुनाकर हवा
पूछने लग गईं क्यारियाँ बाग में
क्या हुआ क्या हुआ क्या हुआ क्या हुआ
नीम की शाख पर झूल झूला रही
एक कोयल बताने लगी भेद ये
प्रीत प्रतिमा बनी आ रही है इधर
था बुलाया किसी ने कहा ओ पिया
ओ पिया ओ पिया ओ पिया ओ पिया
मांग पगडंडियां अपनी भरने लगीं
पनघटों पे संवरने लगे रागिनी
कलसियों की किनारी लगी चूमने
इन्द्रधनुषी बनी थी चपल दामिनी
ईंडुरी के सिरों पर बँधे मोतियों मे
लगी जगमगाने नई आभ सी
बिन पते के लिखे पत्र सी हो गई
आज एकाकियत को मिली वापिसी
उठ खड़ी हो गई नींद से जागकर
आस ने अपना श्रंगार नूतन किया
वो है आने लगा टेर सुन " ओ पिया:
ओ पिया ओ पिया ओ पिया ओ पिया
सीपियों के संजोये हुए कोष की
एक माला गला चूमने को बढ़ी
धड़कनों ने कहा सांस से तीव्र हो
पास आने लगी है मिलन की घड़ी
दॄष्टि रह रह उचक एड़ियों को उठा
राह के मोड़ पे जा अटकबे लगी
वर्ष ने बो रखी कामना की कली
आस का नीर छूकर चटकने लगी
पल ये कहने लगा आ गई वो घड़ी
सारा जीवन है जिस एक पल को जिया
जो अभीप्सित रहा पूर्ण होने लगा
आ रहा है बुलाया जिसे वो पिया
मोगरा जूही चम्पा महकने लगे
लग गईं झूमने कलियाँ कचनार की
धार यमुना की फिर साक्षी बन गई
एक चिर यौवना बढ़ रहे प्यार की
दूरियों के दिवस हो गये संकुचित
और सहसा निमिष मात्र में ढल गये
प्रीत की बांसुरी फिर लगी गूँजने
क्षण विरह के सभी मोम से गल गये
देहरी ने बजाते हुए चंग को
फ़ागुन रंग ला जेठ में भर दिया
द्वार की साँकलें भर के उल्लास में
धुन बजाने लगीं ओ पिया ओ पिया
चढ़ गई भावना पालकी में सजी
सामने आये घट नीर के सौ भरे
स्वर की लहरी उमड़ आई अमराई से
इस गली में, लगा देह जैसे धरे
पांव चूमें ,बनी पथ में रांगोलियाँ
राह में फूल की पांखुरें बिछ गईं
पतझरी मौसमों के अंगूठा दिखा
नव बहारों से सब टहनियाँ सज गईं
बुझ गये जो प्रतीक्षा में दीपक जले
है बरसती सुधा ने उन्हें भर दिया
बादलों के दरीचे से बोली चम
शिंजिनी ओ पिया ओ पिया ओ पिया
लिखता हूँ प्रिय गीत तुम्हारे
परिभाषित जो हुआ नहीं है, शब्दों में ढल भाव ह्रदय का
मैं उसमे ही डूबा डूबा लिखता हूँ प्रिय गीत तुम्हारे
ढलती हुई निशा ने बन कर कुन्तल की इक अल्हड़ सी लट
जो कुछ् कहा अधर पर आकर छिटकी ऊषा की लाली से
अँगड़ाई ले उठीं हुई गंधें कपोल की पंखुड़ियों से
जो अनुबन्ध गईं तय कर कर थिरकी कानों की बाली से
मीत ! तुम्हारे चंचल नयनों के काजल की स्याही लेकर
ढाल रहा उनको गीतों में जितने छन्द हुए कजरारे
रही फ़िसलती एक ओढ़नी को जो उंगली ने समझाया
या फिर जो रंगीन हथेली करती गई हिनायें कोमल
नयनों के पाटल पर संवरे चित्र बता देते जो मन को
और संवारा है सपनों में, अभिलाषा ने बन कर कोंप
वे ही भेद छुपे जो मन में चेहरे पर प्रतिबिम्बित होते
उनको करता हुआ शब्द मैं, बिखरे हैं होकर रतनारे
अनायास करने लग जाती है चूड़ी कंगन से बातें
पायल को कर साज छेड़ता सरगम सहसा रँगा अलक्तक
असमंजस के गलियारे में भटके निश्चय और अनिश्चय
और पांव के नख की पड़ती द्वार धरा के रह रह दस्तक
गतिमय समय निरंतर करता परिवर्तित बनते दॄश्यों को
लेकिन यही चित्र बनते हैं मेरे मन पर सांझ सकारे
मैं उसमे ही डूबा डूबा लिखता हूँ प्रिय गीत तुम्हारे
ढलती हुई निशा ने बन कर कुन्तल की इक अल्हड़ सी लट
जो कुछ् कहा अधर पर आकर छिटकी ऊषा की लाली से
अँगड़ाई ले उठीं हुई गंधें कपोल की पंखुड़ियों से
जो अनुबन्ध गईं तय कर कर थिरकी कानों की बाली से
मीत ! तुम्हारे चंचल नयनों के काजल की स्याही लेकर
ढाल रहा उनको गीतों में जितने छन्द हुए कजरारे
रही फ़िसलती एक ओढ़नी को जो उंगली ने समझाया
या फिर जो रंगीन हथेली करती गई हिनायें कोमल
नयनों के पाटल पर संवरे चित्र बता देते जो मन को
और संवारा है सपनों में, अभिलाषा ने बन कर कोंप
वे ही भेद छुपे जो मन में चेहरे पर प्रतिबिम्बित होते
उनको करता हुआ शब्द मैं, बिखरे हैं होकर रतनारे
अनायास करने लग जाती है चूड़ी कंगन से बातें
पायल को कर साज छेड़ता सरगम सहसा रँगा अलक्तक
असमंजस के गलियारे में भटके निश्चय और अनिश्चय
और पांव के नख की पड़ती द्वार धरा के रह रह दस्तक
गतिमय समय निरंतर करता परिवर्तित बनते दॄश्यों को
लेकिन यही चित्र बनते हैं मेरे मन पर सांझ सकारे
रच गई है स्वप्न मेंहदी से
जब तुम्हारे चित्र आकर छू गये हैं दॄष्टि का नभ
रच गई है स्वप्न मेंहदी से नयन की तब हथेली
चेतना की वीथियों में पांव रखती छवि तुम्हारी
देहरी को लांघती है जिस तरह दुल्हन नवेली
और रँग जाती कई रांगोलियाँ सहसा ह्रदय में
ड्यौढ़ियों पर दीप जलने लग गये दीवालियों के
कर नये अनुबन्ध बिन्दी जब नयन की रश्मियों से
इन्द्रधनुषी उंगलियों से गुदगुदाती नैन मेरे
हीरकनियां अनगिनत तब झिलमिलाती धमनियों में
कल्पना में नॄत्य करते हैं अगन के सात फ़ेरे
और सिन्दूरी क्षितिज की रेख के प्रतिबिम्ब अनगिन
आ सँवरने लग गये हैं कुन्तलों की डालियों पे
उंगलियों के पोर छूने के लिये पल पल फ़िसलरा
रेशमी आंचल, ठिठकता एक पल को जब करों पर
उस घड़ी बनते हजारों चित्र सतरंगे सुनहरे
कल्पना के पाखियों के चन्द चितकबरे परों पर
तब ह्रदय की वीथियों के एक कोने से उमड़ते
भाव आ लगते सिमटने भावना की थालियों पे
--
रच गई है स्वप्न मेंहदी से नयन की तब हथेली
चेतना की वीथियों में पांव रखती छवि तुम्हारी
देहरी को लांघती है जिस तरह दुल्हन नवेली
और रँग जाती कई रांगोलियाँ सहसा ह्रदय में
ड्यौढ़ियों पर दीप जलने लग गये दीवालियों के
कर नये अनुबन्ध बिन्दी जब नयन की रश्मियों से
इन्द्रधनुषी उंगलियों से गुदगुदाती नैन मेरे
हीरकनियां अनगिनत तब झिलमिलाती धमनियों में
कल्पना में नॄत्य करते हैं अगन के सात फ़ेरे
और सिन्दूरी क्षितिज की रेख के प्रतिबिम्ब अनगिन
आ सँवरने लग गये हैं कुन्तलों की डालियों पे
उंगलियों के पोर छूने के लिये पल पल फ़िसलरा
रेशमी आंचल, ठिठकता एक पल को जब करों पर
उस घड़ी बनते हजारों चित्र सतरंगे सुनहरे
कल्पना के पाखियों के चन्द चितकबरे परों पर
तब ह्रदय की वीथियों के एक कोने से उमड़ते
भाव आ लगते सिमटने भावना की थालियों पे
--
गीत कैसे लिखूं
तीलियां घिसते घिसते थकीं उंगलियां
वर्त्तिका नींद से जाग पाई नही
शब्द दस्तक लगाते रहे द्वार पर
सुर ने कोई गज़ल गुनगुनाई नहीं
आपका है तकाजा रचूँ गीत मैं
चांदनी की धुली रश्मियों से लिखे
गीत कैसे लिखूं आप ही अब कहें
जब कि पायल कोई झनझनाई नहीं
***************************
कुछ नये चित्र बनने लगे आँख में
कुछ नई गंध बसने लगी साँस में
कुछ नई आ मिली और अनुभूतियाँ
कुछ नये पंथ सजने लगे पाँव में
सोचने मैं लगा क्या अचानक हुआ
एक पाखी ने आ कर ये मुझसे कहा
कल जो सन्देश थी प्रीत लेकर गई
उसका उत्तर लिये आ रही है हवा
वर्त्तिका नींद से जाग पाई नही
शब्द दस्तक लगाते रहे द्वार पर
सुर ने कोई गज़ल गुनगुनाई नहीं
आपका है तकाजा रचूँ गीत मैं
चांदनी की धुली रश्मियों से लिखे
गीत कैसे लिखूं आप ही अब कहें
जब कि पायल कोई झनझनाई नहीं
***************************
कुछ नये चित्र बनने लगे आँख में
कुछ नई गंध बसने लगी साँस में
कुछ नई आ मिली और अनुभूतियाँ
कुछ नये पंथ सजने लगे पाँव में
सोचने मैं लगा क्या अचानक हुआ
एक पाखी ने आ कर ये मुझसे कहा
कल जो सन्देश थी प्रीत लेकर गई
उसका उत्तर लिये आ रही है हवा
अंधियारे के जितने भी थे संबन्धी
दहलीजों ने भेजा जिनको कभी नहीं कोई आमंत्र
अंधियारे के जितने भी थे संबन्धी बन अतिथि आ गये
नभ ने गलियारों के परदे हटा किरण को पास बुलाया
लेकिन क्षितिजों पर से उमड़े बादल गहरे घने छा गये
अभिलाषा की हर कोंपल को बीन बहारें साथ ले गईं
जीवन की फुलवारी केवल बंजर की पहचान हो गई
यौवन की पहली सीढ़ी पर पूजा की अभिशापित लौ ने
झुलसायी आँखों में सँवरे सपनों की हर इक अँगड़ाई
सन्ध्या ने करील के झुरमुट में जितने भी दीपक टाँगे
उनसे दिशा प्राप्त करने में असफ़ल हो रह गई जुन्हाई
रजनी के आँचल में सिमटे अभिलाषा के निशा-पुष्प सब
और एक यह घटना जैसे पतझर को वरदान हो गई
जितनी भी रेखायें खींची, बनी सभी बाधायें पथ की
खड़ी हो गईं आ मोड़ों पर अवरोधों के फन फ़ैलाय
जीवन की गति को विराम दे गई शपथ वह एक अधूरी
जो गंगा के तट हमने ली थी हाथों में नीर उठाये
होठों पर की हँसी दिशायें बदल बदल आँखों तक पहुंची
और बही बन धारायें जो गज़लों का उन्वान हो गईं
अंधियारे के जितने भी थे संबन्धी बन अतिथि आ गये
नभ ने गलियारों के परदे हटा किरण को पास बुलाया
लेकिन क्षितिजों पर से उमड़े बादल गहरे घने छा गये
अभिलाषा की हर कोंपल को बीन बहारें साथ ले गईं
जीवन की फुलवारी केवल बंजर की पहचान हो गई
यौवन की पहली सीढ़ी पर पूजा की अभिशापित लौ ने
झुलसायी आँखों में सँवरे सपनों की हर इक अँगड़ाई
सन्ध्या ने करील के झुरमुट में जितने भी दीपक टाँगे
उनसे दिशा प्राप्त करने में असफ़ल हो रह गई जुन्हाई
रजनी के आँचल में सिमटे अभिलाषा के निशा-पुष्प सब
और एक यह घटना जैसे पतझर को वरदान हो गई
जितनी भी रेखायें खींची, बनी सभी बाधायें पथ की
खड़ी हो गईं आ मोड़ों पर अवरोधों के फन फ़ैलाय
जीवन की गति को विराम दे गई शपथ वह एक अधूरी
जो गंगा के तट हमने ली थी हाथों में नीर उठाये
होठों पर की हँसी दिशायें बदल बदल आँखों तक पहुंची
और बही बन धारायें जो गज़लों का उन्वान हो गईं
यह टेस्ट पोस्ट है!!
बहुत दिनों से सोच रहा हूँ कोई गीत लिखूँ
इतिहासों में मिले न जैसी, ऐसी प्रीत लिखूँ
भुजपाशों की सिहरन का हो जहाँ न कोई मानी
अधर थरथरा कर कहते हो पल पल नई कहानी
नये नये आयामों को छू लूँ मैं नूतन लिख कर
कोई रीत न हो ऐसी जो हो जानी पहचानी
जो न अभी तक बजा, आज स्वर्णिम संगीत लिखूँ
बहुत दिनों से सोच रहा हूँ मैं इक गीत लिखूँ
प्रीत रूक्मिणी की लिख डालूँ जिसे भुलाया जग ने
लिखूँ सुदामा ने खाईं जो साथ कॄष्ण के कसमें
कालिन्दी तट कुन्ज लिखूँ, मैं लिखूँ पुन: वॄन्दावन
और आज मैं सोच रहा हूँ डूब सूर के रस में
बाल कॄष्ण के कर से बिखरा जो नवनीत लिखूँ
बहुत दिनों से सोच रहा हूँ मैं इक गीत लिखूँ
ओढ़ चाँदनी, पुरबा मन के आँगन में लहराये
फागुन खेतों में सावन की मल्हारों को गाये
लिखूँ नये अनुराग खनकती पनघट की गागर पर
लिखूँ कि चौपालों पर बाऊल, भोपा गीत सुनाये
चातक और पपीहे का बन कर मनमीत लिखूँ
बहुत दिनों से सोच रहा हूँ मैं इक गीत लिखूँ
इतिहासों में मिले न जैसी, ऐसी प्रीत लिखूँ
भुजपाशों की सिहरन का हो जहाँ न कोई मानी
अधर थरथरा कर कहते हो पल पल नई कहानी
नये नये आयामों को छू लूँ मैं नूतन लिख कर
कोई रीत न हो ऐसी जो हो जानी पहचानी
जो न अभी तक बजा, आज स्वर्णिम संगीत लिखूँ
बहुत दिनों से सोच रहा हूँ मैं इक गीत लिखूँ
प्रीत रूक्मिणी की लिख डालूँ जिसे भुलाया जग ने
लिखूँ सुदामा ने खाईं जो साथ कॄष्ण के कसमें
कालिन्दी तट कुन्ज लिखूँ, मैं लिखूँ पुन: वॄन्दावन
और आज मैं सोच रहा हूँ डूब सूर के रस में
बाल कॄष्ण के कर से बिखरा जो नवनीत लिखूँ
बहुत दिनों से सोच रहा हूँ मैं इक गीत लिखूँ
ओढ़ चाँदनी, पुरबा मन के आँगन में लहराये
फागुन खेतों में सावन की मल्हारों को गाये
लिखूँ नये अनुराग खनकती पनघट की गागर पर
लिखूँ कि चौपालों पर बाऊल, भोपा गीत सुनाये
चातक और पपीहे का बन कर मनमीत लिखूँ
बहुत दिनों से सोच रहा हूँ मैं इक गीत लिखूँ
सोच रहे हैं तुम कह दो
सोच रहे हैं तुम कह दो तो कोई गीत लिखें
और तुम्हें हम नहीं अपैरिचित, अपना मीत लिखें
लिखती नाम फूल की पांखुर पर रोजाना शबनम
जमना तट की रेती पर लिखता रहता है मधुबन
हम भी करते हुए अनुसरण ये ही रीत, लिखें
लिखता चन्दन पुरबाई के आँचल पर गन्धें
लहरें लिखतीं गंगा के तट पर आ सौगन्धें
तुम जो कह दो अनुबन्धों में लिपटी प्रीत लिखें
लिखती भोर धूप से लेकर किरणों की स्याही
कोयल स्वर की कूची लेकर रँगती अमराई
हम भी राधा की पायल से ले संगीत लिखें
सोच रहे हैं तुम कह दो तो...............................
और तुम्हें हम नहीं अपैरिचित, अपना मीत लिखें
लिखती नाम फूल की पांखुर पर रोजाना शबनम
जमना तट की रेती पर लिखता रहता है मधुबन
हम भी करते हुए अनुसरण ये ही रीत, लिखें
लिखता चन्दन पुरबाई के आँचल पर गन्धें
लहरें लिखतीं गंगा के तट पर आ सौगन्धें
तुम जो कह दो अनुबन्धों में लिपटी प्रीत लिखें
लिखती भोर धूप से लेकर किरणों की स्याही
कोयल स्वर की कूची लेकर रँगती अमराई
हम भी राधा की पायल से ले संगीत लिखें
सोच रहे हैं तुम कह दो तो...............................
पंख कटा कर रह जाते हैं
सांझ ढले घिरने लगती है आंखों में जब जब वीरानी
नैनीताली संदेशे जब खो जाते जाकर हल्द्वानी
संचित पत्रों के अक्षर जब धुंआ धुंआ हो रह जाते हैं
शेष न रहतीं गंधें उनमें जिन फूलों को किया निशानी
और टपकती है चन्दा से पीली सी बीमार रोशनी
आशाओं के पाखी अपने पंख कटा कर रह जाते हैं
दिन के पथ पर दिख पाता है कोई चिन्ह नहीं पांवों का
पगडंडी को विधवा करता है आभास तलक गांवों का
खत्म हो चुके पाथेयों की झोली भी छिनती हाथों से
जो चेहरा मिलता है, मिलता ओढ़े शून्यपत्र नामों का
छत को शीश ओढ़ लेने की अभिलाषाओं के सब जुगनू
उच्छवासों की गहरी आंधी में उड़ उड़ कर बह जाते हैं
जब संकल्प पूछने लगते प्रश्न स्वयं ही निष्ठाओं से
डांवाडोल आस्थाओं की जो विकल्प हों उन राहों से
पीढ़ी पीढ़ी मिली धरोहर भी जब बनती नहीं विरासत
लगता है कल्पों का बोझा जुड़ता है अशक्त कांधों से
असमंजस के पल सुरसा के मुख की तरह निरंतर बढ़ते
ढाढस के पल पवनपुत्र से बने सूक्ष्म ही रह जाते हैं
सूखी हुई नदी के तट का प्यास बुझाने का आश्वासन
सुधियों के दरवाजे को खड़काता है खोया अपनापन
आईने के बिम्ब धुंआसे, और धुंआसे हो जाते हैं
साथ निभाता नहीं संभल पाने का कोई भी संसाधन
तब हाथों से फ़िसल गये इक दर्पण की टूटी किरचों मे
सपने टुकड़े टुकड़े होकर अनायास ही ढह जाते हैं
नैनीताली संदेशे जब खो जाते जाकर हल्द्वानी
संचित पत्रों के अक्षर जब धुंआ धुंआ हो रह जाते हैं
शेष न रहतीं गंधें उनमें जिन फूलों को किया निशानी
और टपकती है चन्दा से पीली सी बीमार रोशनी
आशाओं के पाखी अपने पंख कटा कर रह जाते हैं
दिन के पथ पर दिख पाता है कोई चिन्ह नहीं पांवों का
पगडंडी को विधवा करता है आभास तलक गांवों का
खत्म हो चुके पाथेयों की झोली भी छिनती हाथों से
जो चेहरा मिलता है, मिलता ओढ़े शून्यपत्र नामों का
छत को शीश ओढ़ लेने की अभिलाषाओं के सब जुगनू
उच्छवासों की गहरी आंधी में उड़ उड़ कर बह जाते हैं
जब संकल्प पूछने लगते प्रश्न स्वयं ही निष्ठाओं से
डांवाडोल आस्थाओं की जो विकल्प हों उन राहों से
पीढ़ी पीढ़ी मिली धरोहर भी जब बनती नहीं विरासत
लगता है कल्पों का बोझा जुड़ता है अशक्त कांधों से
असमंजस के पल सुरसा के मुख की तरह निरंतर बढ़ते
ढाढस के पल पवनपुत्र से बने सूक्ष्म ही रह जाते हैं
सूखी हुई नदी के तट का प्यास बुझाने का आश्वासन
सुधियों के दरवाजे को खड़काता है खोया अपनापन
आईने के बिम्ब धुंआसे, और धुंआसे हो जाते हैं
साथ निभाता नहीं संभल पाने का कोई भी संसाधन
तब हाथों से फ़िसल गये इक दर्पण की टूटी किरचों मे
सपने टुकड़े टुकड़े होकर अनायास ही ढह जाते हैं
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