देते हैं हम नित्य परीक्षा, पीड़ाओं के अध्यायों की
और सांझ हर बार नया ही प्रश्न पत्र लेकर आती है
टूटे हुए स्वप्न की किरचें चुनते चुनते छिली हथेली
पंथ ढूँढ़ते हुए पथों का, पड़े पांव में अनगिन छाले
पथरा गई दृष्टि अम्बर के सूने पन को तकते तकते
दीप शिखा ने स्वयं पी लिये हैं दीपक के सभी उजाले
जब भी चाहा संकल्पों की काँवर को कांधे पर रख लें
शब्द भेद तीरों की यादें आकर दिल दहला जाती हैं
मुरझा गये पुष्प परिचय के, छुईमुई से छूकर उंगली
रिश्तों के धागे कच्चे थे, तने जरा तो पल में टूटे
घिसी हथेली तो सपाट थी एक कांच के टुकड़े जैसी
असफ़ल हुई हिना भी चिन्हित कर पाती जो कोई बूटे
चाहा तो था उगी भोर में नित हम कोई सूर्य जलायें
किन्तु उमड़ती बदली आकर फिर सावन बरसा जाती है
समझौतों के समीकरण को सुलझाने में समय निकलता
एकाकीपन हिमपर्वत सा एक बून्द भी नहीं पिघलता
स्थिर हो गये पेंडुलम से बस लटके असमंजस के साये
एक कदम आगे बढ़ने का हर प्रयास दो बार फ़िसलता
जब अनुकूल हवाओं के झोंकों को किया निमंत्रित, जाने
कैसे झंझा उमड़ उमड़ कर खुद द्वारे पर आ जाती है
वह अनलिखा पत्र लिख डालूँ
आंखों में फिर तिर आये वे यादों की पुस्तक के पन्ने
बुदकी फ़िसली सरकंडे की कलमों से बनती थी अक्षर
प से होता पत्र, जिसे था लिखना चाहा मैने तुमको
जीवन की तख्ती पर जिसके शब्द रह गये किन्तु बिखर कर
शायद कल इक किरण हाथ में आकर मेरे कलम बन सके
सपना है ये, और तुम्हें मैं वह अनलिखा पत्र लिख डालूँ
फिर उभरे स्मॄति के पाटल पर धुंधले रेखाचित्र अचानक
सौगंधों के धागे कि्तने जुड़ते जुड़ते थे बिखराये
पूजा की थाली का दीपक था रह गया बिना ज्योति के
और मंत्र वे जो अधरों तक आये लेकिन गूँज न पाये
शायद पथ में उड़ी धूल में लिपटा हो कोई सन्देसा
सपना है ये, और बुझा मैं दीपक फिर वह आज जला लूँ
फिर आकर महकी हैं मन में गंधों भरी हवाये वे सब
जो कि तुम्हारे रची हथेली से उनवान लिया करती थीं
सांसों की गलियों में आकर जो धीमी आवाज़ लगाती
और इत्र की फ़ुहियों बन कर मुझसे बात किया करती थीं
शायद फिर से बही हवा में लिपटे वे ही गंध सुगन्धी
सपना है ये, और उन्हें मैं फिर से अपने गले लगा लूँ
देती हैं दस्तक आ आकर सुधि पर सुघर पदों की चापें
जिनका करते हुए अनुसरण, निशि में ओस झरा करती थी
तय करते मन का गलियारा, बन जाती थी धड़कन की धुन
और उमंगों की क्यारी में नूतन आस भरा करती थी
खिली धूप की परछाईं में फिर से उभरें वे पदचापें
सपना है ये, और उमंगों को मैं फिर से नया बना लूँ
बुदकी फ़िसली सरकंडे की कलमों से बनती थी अक्षर
प से होता पत्र, जिसे था लिखना चाहा मैने तुमको
जीवन की तख्ती पर जिसके शब्द रह गये किन्तु बिखर कर
शायद कल इक किरण हाथ में आकर मेरे कलम बन सके
सपना है ये, और तुम्हें मैं वह अनलिखा पत्र लिख डालूँ
फिर उभरे स्मॄति के पाटल पर धुंधले रेखाचित्र अचानक
सौगंधों के धागे कि्तने जुड़ते जुड़ते थे बिखराये
पूजा की थाली का दीपक था रह गया बिना ज्योति के
और मंत्र वे जो अधरों तक आये लेकिन गूँज न पाये
शायद पथ में उड़ी धूल में लिपटा हो कोई सन्देसा
सपना है ये, और बुझा मैं दीपक फिर वह आज जला लूँ
फिर आकर महकी हैं मन में गंधों भरी हवाये वे सब
जो कि तुम्हारे रची हथेली से उनवान लिया करती थीं
सांसों की गलियों में आकर जो धीमी आवाज़ लगाती
और इत्र की फ़ुहियों बन कर मुझसे बात किया करती थीं
शायद फिर से बही हवा में लिपटे वे ही गंध सुगन्धी
सपना है ये, और उन्हें मैं फिर से अपने गले लगा लूँ
देती हैं दस्तक आ आकर सुधि पर सुघर पदों की चापें
जिनका करते हुए अनुसरण, निशि में ओस झरा करती थी
तय करते मन का गलियारा, बन जाती थी धड़कन की धुन
और उमंगों की क्यारी में नूतन आस भरा करती थी
खिली धूप की परछाईं में फिर से उभरें वे पदचापें
सपना है ये, और उमंगों को मैं फिर से नया बना लूँ
गीत बस दुहरा रहा हूँ
ज़िन्दगी ने एक दिन जो झूम कर था गुनगुनाया
आज भी मैं प्रीत का वह गीत बस दुहरा रहा हूँ
जब ह्रदय में आप ही उपजे निमंत्रण मंज़िलों के
थी डगर ने माँग अपनी पूर ली थी गंध लेकर
दीप आकर जल गये थे रात की अंगनाईयों में
फूल नभ में खिल गये थी रंग की सौगंध लेकर
चित्र जो इक खिंच गया था आप ही आकर नयन में
मैं उसी में रात दिन बस रंग भरता जा रहा हूँ
जब मरुस्थल सज गया था महकती फुलवारियों में
टांक दीं लाकर हवा ने झाड़ियों में सुगबुगाहट
केतकी जब खिल गई थी इक खुले दालान में आ
कोंपलों में भर गई जब इक अनूठी सरसराहट
उस घड़ी जो इक लहर ने कह दिया था तीर पर आ
मैं वही किस्सा तुम्हें आकर सुनाता जा रहा हूँ
जब सुकोमल रूप आकर ॠषि नयन में बस गया था
मुद्रिका खोई हुइ जिस पल अचानक मिल गई थी
शास्त्र सारे बह गये थे मंत्रमुग्धित हो जहां पर
सृष्टि जब भगवत कथा के पाठ से आ मिल गई थी
शंख सीपी लिख गये जो सिन्धु के तट पर कहानी
ढाल कर मैं कंठ में उसको सुनाता जा रहा हूँ
आज भी मैं प्रीत का वह गीत बस दुहरा रहा हूँ
जब ह्रदय में आप ही उपजे निमंत्रण मंज़िलों के
थी डगर ने माँग अपनी पूर ली थी गंध लेकर
दीप आकर जल गये थे रात की अंगनाईयों में
फूल नभ में खिल गये थी रंग की सौगंध लेकर
चित्र जो इक खिंच गया था आप ही आकर नयन में
मैं उसी में रात दिन बस रंग भरता जा रहा हूँ
जब मरुस्थल सज गया था महकती फुलवारियों में
टांक दीं लाकर हवा ने झाड़ियों में सुगबुगाहट
केतकी जब खिल गई थी इक खुले दालान में आ
कोंपलों में भर गई जब इक अनूठी सरसराहट
उस घड़ी जो इक लहर ने कह दिया था तीर पर आ
मैं वही किस्सा तुम्हें आकर सुनाता जा रहा हूँ
जब सुकोमल रूप आकर ॠषि नयन में बस गया था
मुद्रिका खोई हुइ जिस पल अचानक मिल गई थी
शास्त्र सारे बह गये थे मंत्रमुग्धित हो जहां पर
सृष्टि जब भगवत कथा के पाठ से आ मिल गई थी
शंख सीपी लिख गये जो सिन्धु के तट पर कहानी
ढाल कर मैं कंठ में उसको सुनाता जा रहा हूँ
लेकिन कभी कभी जाने क्यों
असमंजस के धागों से हम यूं तो दूर रहे हैं अक्सर
किंकर्तव्यविमूढ़ हुए हैं लेकिन कभी कभी जाने क्यों
दिन व्यय किया रखा तब हमने निमिष निमिष का जोखा लेखा
हर रिश्ते को हर नाते को नापा और तोल कर देखा
परखा अपनी एक कसौटी पर जो मिला कहीं भी कुछ भी
और सदा अपनी सीमायें तय कर, खींचीं लक्ष्मण रेखा
निर्धारित है रही समय की गति ये हमको ज्ञात रहा है
चाहा कालचक्र रुक जाये, लेकिन कभी कभी जाने क्यों
बातें करते हैं अर्थात लिये हो ताकि नहीं कोई भ्रम
धारा से परिचय से पहले जान लिया है उसका उद्गम
डगमग पग हों नहीं इसलिये चले संतुलित कर कदमों को
मानचित्र पर राह बनाई, हो न सके कोई भी दिग्भ्रम
परिभाषा की व्याख्याओं में गहरे खूब लगाये गोते
शब्द अपैरिचित हो जाते हैं लेकिन कभी कभी जाने क्यों
दुविधा, संशय, संदेहों से परिचय कभी नहीं हम जोड़े
आशंका के धागे कत लें, इससे पहले ही सब तोड़े
अगवानी के लिये द्वार पर निश्चय की प्रतिमा रख दी थी
ऊहापोह भरे पल जितने भी थे वे सब पीछे छोड़े
हम हर बार चुनौती देकर बाधाओं को पास बुलाते
परछाई से डर जाते हैं लेकिन कभी कभी जाने क्यों
किंकर्तव्यविमूढ़ हुए हैं लेकिन कभी कभी जाने क्यों
दिन व्यय किया रखा तब हमने निमिष निमिष का जोखा लेखा
हर रिश्ते को हर नाते को नापा और तोल कर देखा
परखा अपनी एक कसौटी पर जो मिला कहीं भी कुछ भी
और सदा अपनी सीमायें तय कर, खींचीं लक्ष्मण रेखा
निर्धारित है रही समय की गति ये हमको ज्ञात रहा है
चाहा कालचक्र रुक जाये, लेकिन कभी कभी जाने क्यों
बातें करते हैं अर्थात लिये हो ताकि नहीं कोई भ्रम
धारा से परिचय से पहले जान लिया है उसका उद्गम
डगमग पग हों नहीं इसलिये चले संतुलित कर कदमों को
मानचित्र पर राह बनाई, हो न सके कोई भी दिग्भ्रम
परिभाषा की व्याख्याओं में गहरे खूब लगाये गोते
शब्द अपैरिचित हो जाते हैं लेकिन कभी कभी जाने क्यों
दुविधा, संशय, संदेहों से परिचय कभी नहीं हम जोड़े
आशंका के धागे कत लें, इससे पहले ही सब तोड़े
अगवानी के लिये द्वार पर निश्चय की प्रतिमा रख दी थी
ऊहापोह भरे पल जितने भी थे वे सब पीछे छोड़े
हम हर बार चुनौती देकर बाधाओं को पास बुलाते
परछाई से डर जाते हैं लेकिन कभी कभी जाने क्यों
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