वीणापाणि शारदा ने जो अपने शतदल की इक पांखुर
मुझको सौंपी है, शब्दों में ढल कर गीत बनी है मेरा
यों तो हर मन की क्यारी में फूटे हैं भावों के निर्झर
और कंठ से उपजा करता सहज भावनाओं में ढल स्वर
अक्षर की उंगली को पकड़े सभी प्रकाशित हो न पाते
कुछ लयबद्ध स्वयं ही हो जाते हैं शब्द मात्र को छूकर
आशीषों की अनुकम्पा से कालनिशा का घना अंधेरा
एक रश्मि के आवाहन पर बन जाता है नया सवेरा
अक्षर की पूँजी जो तुमको मिली वही मैने भी पाई
तुमने सब रख लिये कोष में, मैने पास रखे बस ढाई
जो बहार के समाचार को लेकर फिरी बयारे भटकीं
वे सहसा ही कलम चूम कर बनी गंध डूबी पुरबाई
एक तार ने झंकॄत होकर यों सरगम की आंखें खोलीं
सन्नाटे का जो छाया था निमिष मात्र में हटा अंधेरा
फूलों की पांखुर, तितली के पंख, कूचियां चित्रकार की
चूड़ामणि जानकी की जो गढ़े कल्पना स्वर्णकार की
आम्रपालियों के पगनूपुर, वैशाली के कला-शिल्प को
और सूप ने जिन्हें संजोया, सारी बातें गहन सार की
हंसवाहिनी ने जब दे दी दिशा और निर्देशन अपना
तब ही तो स्वयमेव कलम ने इन्हें शब्द में पिरो चितेरा
अभिलाषा की पायल कितनी खनके नॄत्य नहीं सज पाता
पनघट पर आकर भी गागर का तन मन प्यासा रह जाता
शब्दकोष हो, भाव प्रबल हों और शिल्प का ज्ञान पूर्ण हो
फिर भी उसके इंगित के बिन कोई गीत नहीं बन पाता
मानस कमल विहारिणि के ही वरद हस्त की मॄदु छाया ने
सुर शब्दों में रंग कर मन का सोया जागा भाव बिखेरा
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9 comments:
वीणापाणि शारदा ने जो अपने शतदल की इक पांखुर
मुझको सौंपी है, शब्दों में ढल कर गीत बनी है मेरा
-यही अपने आप में पूरी है..बाकी सारा बम्पर बोनस!!!! बहुत ही उम्दा!!
एक तार ने झंकॄत होकर यों सरगम की आंखें खोलीं
सन्नाटे का जो छाया था निमिष मात्र में हटा अंधेरा
आप की कविता पे लिखूँगा तो क्या मैं ... मंत्रमुग्ध सा पढ़ लेता हूँ बस.
अभिलाषा की पायल कितनी खनके नॄत्य नहीं सज पाता
पनघट पर आकर भी गागर का तन मन प्यासा रह जाता
शब्दकोष हो, भाव प्रबल हों और शिल्प का ज्ञान पूर्ण हो
फिर भी उसके इंगित के बिन कोई गीत नहीं बन पाता
मानस कमल विहारिणि के ही वरद हस्त की मॄदु छाया ने
सुर शब्दों में रंग कर मन का सोया जागा भाव बिखेरा
satya hi to hai....!
हंसवाहिनी ने जब दे दी दिशा और निर्देशन अपना
तब ही तो स्वयमेव कलम ने इन्हें शब्द में पिरो चितेरा
सही और सुंदर कहा आपने
अक्षर की पूँजी जो तुमको मिली वही मैने भी पाई
तुमने सब रख लिये कोष में, मैने पास रखे बस ढाई
Rakesh hats off to you for these two lines
अभिलाषा की पायल कितनी खनके नॄत्य नहीं सज पाता
पनघट पर आकर भी गागर का तन मन प्यासा रह जाता
शब्दकोष हो, भाव प्रबल हों और शिल्प का ज्ञान पूर्ण हो
फिर भी उसके इंगित के बिन कोई गीत नहीं बन पाता
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एकदम सत्य कहा आपने......
आप तो बस लिखे जाइये,हम मंत्रमुग्ध हो पढ़ा करेंगे.
आशीषों की अनुकम्पा से कालनिशा का घना अंधेरा
एक रश्मि के आवाहन पर बन जाता है नया सवेरा
अक्षर की पूँजी जो तुमको मिली वही मैने भी पाई
तुमने सब रख लिये कोष में, मैने पास रखे बस ढाई
जो बहार के समाचार को लेकर फिरी बयारे भटकीं
वे सहसा ही कलम चूम कर बनी गंध डूबी पुरबाई
अति सुन्दर पंक्तियॉं, मन को बहुत कोमल सा स्पर्श दे जाती हैं आपकी कविताऍं
शुभकामनाऍं दीपावली की ढेर सारी।
और गुरु के श्री-चरणों में, बैठ लिखे जो टूटे अक्षर
नागफनी भी हो तो निशिगंधा बन जाती है वो खिलकर !
आदरणीय राकेशजी, आपकी रचनाएँ चुपचाप पढ़कर आनंद लेता रहता हूँ और धन्य होता रहता हूँ. टिप्पणी करने की हिम्मत ही नहीं होती सरजी. वो कवि सम्मेलन भी बहुत सुंदर बन पड़ा. समीरजी की पोस्ट पर सुना व् देखा. आपसे दीपावली पर आशीर्वाद लेने हेतु प्रणाम करता हूँ सर, और आपको इस महान पर्व बहुत बहुत मुबारकबादियाँ.
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