गुलमोहर के तले धूप की परछाईं में उस दिन तुमने
अपने अधरों से लिख दीं थीं कुछ शपथें कपोल पर मेरे,
ॠतुएं बदलीं किन्तु दिवस वे अब तक धुंधले हो न सके हैं
मन के लेखागार रखे हैं, दस्तावेज सुरक्षित सारे
चढ़ी किरण की प्रत्यंचा थी, सात रंग की जब कमान पर
अठखेली कर रहीं हवायें बाद्ल से थीं, जब वितान पर
गूँज रहे थे देवालय के पथ में अभिमंत्रित हो जब स्वर
जलतरंग के साथ नदी से बातें करता था इक निर्झर
उस पल झुकी हुई नजरों की रह रह कर उठती चितवन ने
पगनख से जो लिखे धरा पर, संशय की स्याही ले लेकर
उन प्रश्नों के उत्तर बन कर, जो पल ढले गये प्रतिमा में
उस पर ही अटके हैं अब तक ,वर्षों हुए, नयन बजमारे
यों तो बहते हुए समय की धारा सब करती परिवर्तित
वहां मौन अँगड़ाई लेता, जहाँ रहे हों घुंघरू झंकॄत
फूलों वाले नर्म बिछौने, बन जाते पथरीली राहें
सूनापन पीने लगतीं हैं सपने बुनती हुई निगाहें
किन्तु समय के हस्ताक्षर जब अंकित हो जाते पन्नों पर
वे यादों की पुस्तक में जाकर सहसा ही जुड़ जाते हैं
फिर संध्या के थके हुए पग, वापिस नीड़ लौटते हैं जब
पढ़तीं उनको रह रह सुधियाँ खुलते ही आंगन के द्वारे
शरद पूर्णिमा में निखरी हो ताजमहल की जब अंगड़ाई
या गुलाब की क्यारी में हो भटक गई कोई पुरबाई
पनघट की राहों में गूँजा हो आतुर होकर अलगोजा
या फिर कजरी छेड़ रहा हो , नगर चौक में कोई भोपा
ये सब सुरभित कर देते हैं, चेतन की बारादरियों में
टँगे हुए जो भित्तिचित्र हैं,जिनमें दॄश्य सभी वे चित्रित
जब तुम हुए मेरे सहराही, या तुम गिनते थे देहरी पर
तुमसे मिलने और विलगने के जो क्षण थे सांझ सकारे
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13 comments:
गुरुजी, दिल बाग-बाग हो गया !
शरद पूर्णिमा में निखरी हो ताजमहल की जब अंगड़ाई
या गुलाब की क्यारी में हो भटक गई कोई पुरबाई
पनघट की राहों में गूँजा हो आतुर होकर अलगोजा
या फिर कजरी छेड़ रहा हो , नगर चौक में कोई भोपा
" hats off to your writing'
regards
राकेश जी आपके गीतों पर टिप्पणी करते करते मेरे शब्द कोश में शब्द ही समाप्त हो गये हैं । क्या कहूं इस एक शब्द के अलावा ''अद्भुत''
क्या बात है राकेश जी ! कभी सोचा ही नही यादें दस्तावेज होती हैं ! आपका शुक्रिया एक नयी परिभाषा देने के लिए !
'मन के लेखागार रखे हैं…'
बहुत ही अनूठा और अद्भुत प्रयोग।
बधाई।
हम भी इतना ही दर्ज कर सकने में सक्षम हैं-अद्भुत!!
"किन्तु समय के हस्ताक्षर जब अंकित हो जाते पन्नों पर
वे यादों की पुस्तक में जाकर सहसा ही जुड़ जाते हैं
फिर संध्या के थके हुए पग, वापिस नीड़ लौटते हैं जब
पढ़तीं उनको रह रह सुधियाँ खुलते ही आंगन के द्वारे"
जितनी बार ये पंक्तियां पढती हूँ, भाव विभोर हो जाती हूँ। इतना बडा जीवन का सत्य, इतनी सुलभ भाषा में !
गुरुजी आप् के चरण कहाँ हैं :)
बहुत प्रणाम आपको ! और दशहरे की शुभकामनाएं !
गुरु जी गीत ना गायें,
busy हैं स्कूल ना आयें
तो बच्चे क्यों रहें चुपचाप
आयो मिल उधम मचायें ।
चलो जी उनकी ही रचना
उन्हीं के ब्लाग पे गायें !
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क्योंकि 'क्षमा बडन को चाहिए, छोटन को उत्पात'
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Thursday, May 04, 2006
हमारी होगी
गम से अपनी यारी होगी
फिर कैसी दुश्वारी होगी
सपने घात लगा बैठे हैं
आँख कभी निंदियारी होगी
दिल को ज़ख्म दिये आँखों ने ?
बरछी, तीर कटारी होगी
भोर उगे या सांझ ढले बस
चलने की तैयारी होगी
खुल कर दाद जहां दी तुमने
वो इक गज़ल हमारी होगी {Kya Sir Ji:)}
बहुत दिनों से लिखा नहीं कुछ
शायद कुछ लाचारी होगी
कहो गज़ल या कहो गीतिका
रचना एक दुधारी होगी {Hai sir Ji:)}
रचनाकार: राकेश खंडेलवाल @ 12:45 AM
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ये बात अलग है कि ये मेरी स्कूल से निकलने की तैयारी होगी :)
यहां शाम है, तो आपकी सुबह हो गयी होगी। सुबीर जी से पता चला कि अंतरजाल में हिन्दयुग्म पे आपकी पुस्तक का विमोचन हो रहा है। हम तो वहाँ जरूर जायेंगे। आशा करती हूँ कि आप, अनूपजी, रजनी जी और उडन तश्तरी जी वाशिंगटन में खूब समां बांधेगे ।
हाँ गुरूजी, बचपन में पढा एक शेर याद आया,
"हूजूमे बुलबुल हुआ चमन में, किया जो गुल ने जमाल पैदा
कमी नहीं कद्रदां की अकबर करे तो कोई कमाल पैदा "
ढेर सारी मंगल कमनाओं सहित,
:)
वाह, वाह ! बहुत खूब लोकार्पण, हम जैसे प्रवासियों के लिये वरदान !
कुंवर बैचन जी की प्रस्तावना पढ के मन मयूर नाच उठा !
संजय पटेल जी की आवाज में राकेश जी के गीत, जैसे सोने पे सुहागा!
अब बस यही प्रश्न: सी डी कब बनवा रहें हैं ?
पुस्तक तो गुरुजी के हस्ताक्षर सहित हम प्राप्त कर ही लेंगे!
किसका है याद नहीं, पर एक शेर याद आया:
"उनके दामन को छू के आयें हैं,
हमको फूलों में तोलिये साहिब "
असंख्य धन्यवाद !
तीनों विमोचनों की है आपको बधाई
शुभकामना का रेला संभालियेगा साहेब
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