मंज़िल पथ के दोराहे पर आ कर जब पीछे मुड़ देखा
सूनी राहों पर कदमों का कोई चिन्ह नजर न आया
यूँ तो एक चक्र में बँध कर चलते रहना भी चलना है
निरुद्देश्य भटके पग का भी निश्चित ही गतिमय रहना है
लक्ष्यहीन गति की परिणति तो केवल शून्य हुआ करती है
दूरी को तय करना उस पल इक भ्रम का टूटा सपना है
उगी भोर से ढली सांझ तक चलते हुए निरन्तर पथ में
जहां सजा पाथेय, नीड़ भी आखिर उसी जगह बन पाया
टँगी नित्य ही दीवारों पर चाहत की अनगिन तस्वीरें
कुछ रंगों से सज्जित थीं, कुछ में थी केवल खिंची लकीरें
समझा नहीं किन्तु रंगो का निश्चित होता एक आचरण
उंगली रहे उठाते, अपनी नहीं जाग पाती तकदीरें
जीवन के हर समीकरण का कोई सूत्र अधूरा निकला
इसीलिये तो कभी किसी से सामंजस्य नहीं हो पाया
सुना हुआ था सत्य, गल्प से अधिक अजनबी भी होता है
वही फूल हँसता है घिर कर काँटो में भी जो सोता है
बढ़ा कदम जो आगे वह ही पथ की तय कर पाता दूरी
गठरी हो जिसकी बस वह ही तो अपनी गठरी खोता है
लीकिन हर इक सोचा समझा जाना था हो गया अजनबी
जो समझे थे समझ रहे हैं वह भी कुछ भी समझ न आया
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12 comments:
मंज़िल पथ के दोराहे पर आ कर जब पीछे मुड़ देखा
सूनी राहों पर कदमों का कोई चिन्ह नजर न आया
-हमेशा की तरह जबरदस्त...शब्द इस्तेमाल कर तारीफों के..इनका कद कम मैं नहीं करुँगा,,
बहुत उम्दा!!
आज की कविता भी हमेशा की तरह प्रभावी है राकेश जी ....
"अँधेरी रात का सूरज" के प्रकाशन और विमोचन के लिये अग्रिम बधाई व शुभकामना -
और भाई श्री पँकज सुबीर जी को भी धन्यवाद -इस तरह निस्पृहता से कार्य करने के लिये -
बहुत स्नेह सहित,
- लावण्या
राकेशजी, अंधेरी रात के सूरज के लिये आपको बधाई और शुभकामनायें।
आत्ममंथन के कारण उपजे नैराश्य भाव के साथ साथ ईमानदारी, कवि के बेहतरीन दिल की एक तस्वीर पेश करता है,
"जीवन के हर समीकरण का कोई सूत्र अधूरा निकला
इसीलिये तो कभी किसी से सामंजस्य नहीं हो पाया"
बहुत सुंदर !
Bahut hi bhavna pradhan aur chintansheel kavita. bahut badhia.
'जीवन के हर…।
यथास्थिति से समझौता विहीन संघर्ष की अनिवार्य परिणिति यही होती है। बहुत ही सुन्दर।
आपकी कविता पढ़कर निःशब्द हो जाते है ।
Pustak Vimochan hetu badhai evam is kavita hetu saadhuvaad
जीवन के हर समीकरण का कोई सूत्र अधूरा निकला
इसीलिये तो कभी किसी से सामंजस्य नहीं हो पाया
वाह राकेश जी वाह...कितने सुंदर शब्द और भाव...आप की रचनाओं के लिए उपयुक्त विश्लेषणों का अभाव पढ़ गया है अब...हर रचना दिल के करीब अपने आप आ जाती है...वाह...
नीरज
suna hua satya galp se adhik ajnabi -thik kaha apne
गुरुजी,
दो बातें। एक तो ये कि कोई बिरला ही ऐसी गूढ कविता लिख सकता है। पुरातन काल से सारी सभ्यतायें पाथेय के पास ही नीढ बनाती आ रहीं हैं।
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दूसरी बात ये कि हम सब का सस्नेह अनुरोध है कि अब कोई खुशनुमा गीत हो जाये, "अंधेरी रात का सूरज" का स्वागत जो करना है ! तो अब भरतपुर से अपने मित्र पंछियों को बुलाइये और कोई दिल बाग-बाग करने वाला गीत गाईये ।
जीवन के हर समीकरण का कोई सूत्र अधूरा निकला
लीकिन हर इक सोचा समझा जाना था हो गया अजनबी
जो समझे थे समझ रहे हैं वह भी कुछ भी समझ न आया
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