कितनी और उम्र बाकी है

हर मौसम फ़ागुन के रंगों में रंग लिया भावनाऒ ने
एक तुम्हारी छवि नयनों ने भित्तिचित्र कर कर टांकी है

अगवानी को आज पंथ पर पांखुर बन कर बिछीं निगाहें
पगरज को सिन्दूर बना लेने को आतुर हैं सब राहें
कौआ चांदी नित्य भोर से छतें लगीं हैं आज सजाने
रुकी हुइ पुरबाई पथ में, स्वागत करने फ़ैला बाहें

रजनी जाना नहीं चाहती, थकी प्रतीची उसे बुलाते
हो अधीर मुड़ मुड़ देखा है, राह तुम्हारी ही ताकी है

सुरभित आशायें प्राची को लगीं और लज्जानत करने
रंग अलक्तक के पांवों पर, लगे और कुछ अधिक उभरने
करने लगा बात बुन्दों से झूम झूम माथे का टीका
चन्द्रहार के माणिक मन की हर धड़कन को आये सुनने

सजने लगे अचानक सारे क्षण अनजाने ही कुछ ऐसे
स्वयं पी रही प्याले भर भर, सुधियों की पागल साकी है

मिलते स्पर्श तुम्हारा होगी मेंहदी से रंगीन हथेली
अँगनाई में अँगड़ाई लेगी आ आ कर भोर नवेली
कंगन के साजों पर चूड़ी छेड़ेगी नव मेघ मल्हारें
पुरबाई बाँहों में भर कर मुझे बनेगी नई सहेली

जागी हुई कल्पना आकर भरती मुझको मधुपाशों में
उम्र प्रतीक्षा वाली निशि की और नहीं ज्यादा बाकी है

7 comments:

ghughutibasuti said...

बहुत मधुर और बहुत सुन्दर !
घुघूती बासूती

सुनीता शानू said...

सुरभित आशायें प्राची को लगीं और लज्जानत करने
रंग अलक्तक के पांवों पर, लगे और कुछ अधिक उभरने
करने लगा बात बुन्दों से झूम झूम माथे का टीका
चन्द्रहार के माणिक मन की हर धड़कन को आये सुनने

बहुत सुन्दर भाव लग रहे है...

सुनीता शानू said...

कौआ चांदी नित्य भोर से छतें लगीं हैं आज सजाने
माफ़ी चाहती हूँ...ये पंक्तियाँ समझ नही आ रही है...जरा बताईयेगा।

Anonymous said...

beautiful

नीरज गोस्वामी said...

सजने लगे अचानक सारे क्षण अनजाने ही कुछ ऐसे
स्वयं पी रही प्याले भर भर, सुधियों की पागल साकी है
राकेश भी
वाह वा... क्या बात है. शब्दों के जादूगर हैं आप, ये तो पहले ही कह चुका हूँ, इसबार जो आप की रचना है उस को पढ़ कर लगता है उम्र तीस वर्ष पीछे चली गयी है. कोमल भावों को सटीक शब्द देना एक सिध्ध व्यक्ति का ही काम हो सकता है...वाह वाह ...
नीरज

पंकज सुबीर said...

राकेश जी प्रणाम आपकी कविताएं पढ़ता आ रहा हूं और कल समीर लाल जी ने भी आपके बारे में काफी विस्‍तार से बताया मैं एक ही निवेदन करना चाहता हूं कि आप जो सुंदर कविताएं लिख रहे हैं उनको पुस्‍तक का आकार देकर लोगों तक पहुंचाएं क्‍योंकि जिस विधा में आप लिख रहे हैं वह तो आज विलुप्‍तप्राय हो रही है । आप निश्चित रूप से बहुत सुंदर लिख रहे हैं । भाई समीर आपकी प्रशंसा करते नहीं थक रहे थे । आप भारत आए थे मेरा दुर्भाग्‍य कि मैं आपसे मिल नहीं पाया खैर कभी न कभी कहीं न कहीं तो मिलेंगें ।

राकेश खंडेलवाल said...

नीरजजी, सुबीरजी, महकजी तथा बासूती जी धन्यवाद.

सुनीर्ताजी - उत्तरी भारत में रिषि पंचमी के अवसर पर छोटी छोती रोटियाँ बना कर मीठे दही के साथ उन्हें कौओं को खिलाने के लिये छत पर ले जाया जाता है. कौओं को आमंत्रित किया जाता है उन्हें खाने के लिये.
आंचलिक भाषा में इसे कौआ चाँदी कहा जाता है. माना जाता है कि कौओं के इसे खाने के पश्चात वे प्रसन्न मन अतोथियों के सन्देश पूरे वर्ष लाते रहते हैं. इसी प्रसंग को जोड़ने की कोशिश की है.

सुबीरजी-

पिछले नवंबर में भारत यात्रा के दौरान वहां प्रकाशक से बात हुई थी और इस दिशा में गंभीरता से प्रयत्नरत हूँ. आपकी सद्भावनाओं से यह कार्य शीघ्र ही मूर्त हो सकेगा.

धन्यवाद

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