१५०वीं पोस्ट-- एक वह प्रस्तावना हो

मीत तुम मेरे सपन के इन्द्रधनुषी इक कथानक
के लिये जो पूर्णिमा ने है लिखी, प्रस्तावना हो


जानता हूँ जो दिवस के संग शुरू होगी कहानी
पाटलों पर जो लिखेगी, रश्मि बून्दों की जुबानी
पंछियों के कंठ के स्वर का उमड़ता शोर लेकर
गंध में भर कर सुनायेगी महकती रात रानी

और हर अध्याय में जो छाप अपनी छोड़ देगी
तुम उसी के केन्द्रबिन्दु की संवरती कामना हो

फूल के द्वारे मधुप ने आ जिसे है गुनगुनाया
धार की अँगड़ाइयों ने साज पर तट के बजाया
ज्योति पॄष्ठों पर लिखा है जल जिसे नित वर्त्तिका ने
नॄत्य करते पांव को जो घुंघरुओं ने है सुनाया

वह विलक्षण राग जो संगीत बनता है अलौकिक
तुम उसी इक राग की पलती निरंतर साधना हो

आहुति के मंत्र में जो घुल रही है होम करते
जो जगी अभिषेक करने, सप्त नद का नीर भरते
मधुमिलन की यामिनी में स्वप्न की कलियां खिला कर
जो निखरती है दुल्हन के ध्यान में बनते संवरते

शब्द की असमर्थता जिसको प्रकाशित कर न पाई
मीत तुम अव्यक्त वह पलती ह्रदय की भावना हो

8 comments:

Udan Tashtari said...

शब्द की असमर्थता जिसको प्रकाशित कर न पाई
मीत तुम अव्यक्त वह पलती ह्रदय की भावना हो

--वाह, बहुत खूब राकेश भाई.

१५० वीं पोस्ट के लिये बहुत बहुत बधाई. आपकी कलम इसी तरह बहती रहे और हम सब आपके गीतों का आनन्द लेते रहें, यही कामना है.

अनेकों शुभकामनाओं से साथ अनेकों सेकड़ों मे प्रतिक्षारत.....

Pramendra Pratap Singh said...

150 वीं की बधाई,

बढि़यॉं कविता, सुन्‍दर अभिव्‍यक्ति

उन्मुक्त said...

१५०वीं चिट्ठी पर बधाई

अनूप शुक्ल said...

सुन्दर। बधाई १५० वीं पोस्ट पर!

Mohinder56 said...

राकेश जी
पारिवारिक व्यस्ताओं के चलते काफ़ी समय से नेट पर बहुत कम समय दे पा रहा था.. अब सब सामन्य है तो नियमत हाजरी लगेगी.

१५०वीं रचना के आपको बहुत बहुत बधायी... सचमुच आप की रचना को पढ्कर लगता है कि ब्लोग जगत में आकर कम से कम हमें यह तो पता लगा कि गीत कविता कैसे लिखी जाती है..
नमन

कंचन सिंह चौहान said...

मीत तुम मेरे सपन के इन्द्रधनुषी इक कथानक
के लिये जो पूर्णिमा ने है लिखी, प्रस्तावना हो
बहुत खूब

Divine India said...

वाह राकेश भाई,
शानदार भावना-प्रधान एक जीवंत कविता… 150 वीं हो या कितनी भी हमेशा आपकी अच्छी कविता का साथ मिलता रहे यही कामना करता हूँ।

सुनीता शानू said...

सबसे पहले आपको १५० वी पोस्ट पर हार्दिक बधाई
आपका हर गीत, हर कविता बेहद सवेंदनशील होती है...
आहुति के मंत्र में जो घुल रही है होम करते
जो जगी अभिषेक करने, सप्त नद का नीर भरते
मधुमिलन की यामिनी में स्वप्न की कलियां खिला कर
जो निखरती है दुल्हन के ध्यान में बनते संवरते...

बहुत-बहुत बधाई बेहद खूबसूरत रचना है

सुनीता(शानू)

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