आज जो बात है वो ही कल भी रहे

बात जो है हमारी तुम्हारी प्रिये
कल भी थी, आज भी, और कल भी रहे

चारदीवारियों में सिमट रह गईं
आज तक कितनी गाथायें हैं प्रेम की
और कितनी लिखी जा रहीं भूमिका
बात करते हुए बस कुशल क्षेम की
कितनी संयोगितायें हुईं आतुरा
अपने चौहान की हों वे वामासिनी
शीरियां कितनी बेचैन हैं बन सकें
अपने फ़रहाद के होंठ की रागिनी

आज शाकुन्तला अपने दुष्यन्त के
अंक से दूर न एक पल भी रहे

सिक्त मधु से अधर, ने अधर पर लिखी
जो लिखी जा चुकी है कहानी वही
वाटिका में ह्रदय की किये जा रहीं
भावनायें पुन: बागवानी वही
योजना ताजमहलों के निर्माण की
हर घड़ी हर निमिष हैं बनाईं गईं
और विद्दोत्तमायें सपन आँज लें
इसलिये बदलियां नित पठाईं गईं

आओ फिर आज दोहरायें हम वे वचन
जो शची ने कभी इन्द्र से थे कहे

आओ हम प्रीत के पंथ पर रीत से
हट चलें और कुछ आज ऐसा करें
कल मिलें दॄष्टियां, डूब जब प्रीत में
उनको मानक बना अनुसरण सब करें
एक अध्याय नूतन लिखें आओ हम
पॄष्ठ जोड़ें नया एक इतिहास में
और जुड़ जायें सन्दर्भ की डोर से
प्रेम गाथाओं के मूक आभास में

नभ की अँगनाई में सन्दली गंध ले
प्रीत पुरबाई बन रात दिन बस बहे

5 comments:

Udan Tashtari said...

आज शाकुन्तला अपने दुष्यन्त के
अंक से दूर न एक पल भी रहे


--क्या बात है, राकेश भाई...बहुत खूब आनन्द आ गया इस रचना को पढ़.

Unknown said...

बात जो है हमारी तुम्हारी प्रिये
कल भी थी, आज भी, और कल भी रहे

शुभकामनायें...

रचना तो हमेशा की तरह सुंदर है ही....

Divine India said...

प्रेम का एक पंथ यह भी है…गजब!!!
बहुत उम्दा रचना है…बधाई॥

Mohinder56 said...

आओ हम प्रीत के पंथ पर रीत से
हट चलें और कुछ आज ऐसा करें
कल मिलें दॄष्टियां, डूब जब प्रीत में
उनको मानक बना अनुसरण सब करें
एक अध्याय नूतन लिखें आओ हम
पॄष्ठ जोड़ें नया एक इतिहास में
और जुड़ जायें सन्दर्भ की डोर से
प्रेम गाथाओं के मूक आभास में

सुन्दर भाव है... राकेश जी.....
परन्तु,

मय भी वही हैं प्याले भी वही हैं
बस पीने वालों का अन्दाज बदल गया है

Dr.Bhawna Kunwar said...

bahut khubsurat bhav han rakesh ji.badhai.

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