वो बुझे दियों की कतार थी जो कि मेरे आसपास थी
मैने समझा था जिसे चांदनी, वो तो झुटपुटे का कुहास थी
जिसे ढूँढ़ती रही नजर, फ़ंसी भटकनो में इधर उधर
मुझे ये मगर न हुई खबर, वो तो गुमशुदा ही तलाश थी
मेरी आरज़ुओं की हर थकन, सुकूं माँगती थी शबे सहर
मैने समझा जिसको कुमोदिनी वो तो एक दहका पलाश थी
भर भर घड़े उंड़ेलकर , दिये पनघटों ने पुकार कर
जो बुझी न पल के लिये मगर, वो मरुस्थली मेरी प्यास थी
जिसे नाम तुमने गज़ल दिया, जिसे मैने सोचा कि नज़्म है
वो जो माला शब्दों की एक थी, वो तो भावना का निकास थी
वो जो रात के प्रथम प्रहर मेरी ख्वाहिशो को समेटकर
मेरे ख्वाब में गई आ संवर, तेरे महके तन की सुवास थी
जो थी शब-बखैर की आरज़ू, जो बसी हमारे थी चार सू
जिसे सींचा है लम्हों में बांध कर, वो तेरे मिलन की ही आस थी.
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नव वर्ष २०२४
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2 comments:
"वो जो रात के प्रथम प्रहर ... सुवास थी "
"जो थी शब-बखैर की आरज़ू...की ही आस थी"
--
खूबसूरत !
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