काव्य मेरा सॄजित, य्रे सिमट कर कहीं बंद होकर किताबों में ही न रहे
आपके कंठ की रागिनी थाम कर, आपके होंठ पर ये मचलता रहे
कल्पना ने मेरी जिसमें गोते लगा, शब्द श्रन्गार को आपके हैं चुने
मेरी भाषा की भागीरथी आपके द्वार के सामने से निरंतर बहे
राकेश खंडेलवाल
नवंबर २००५
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नव वर्ष २०२४
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2 comments:
बहुत खूबसूरत !
:) aur agar gala sureela na ho toh ? Tab bhi Geet gungunane ki anumati hai ya nahin ??
:)
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