कहीं नीड़ कोई मिल जाए

महानगर की संस्कॄतियों के लिखे हुए नव अध्यायों में
खोज रहे हैं परिचय वाला कोई तो अक्षर मिल जाये

लाते नहीं हवायें स्मृति की
मन के अवरोधित वातायन
सोख लिया करतीं दीवारें
जागी हुई भोर का गायन
दॄष्टि सिमट कर रह जाती ह
बन्दी होकर गलियारों मे
सूरज की परिभाषा होत
कन्दीलों के उजियारों में

बँधे चक्र में चलते चलते आस यही इक रहती मन में
बांधे हुए नियति का जो है, इक दिन वह खूँटा हिल जाये

कैद हो गया है कमरों की
सीमाओं में आकाशी मन
सब के अर्थ एक जैसे हैं
कार्तिक फ़ागुन, भादों सावन
शब्दकोश से बिछुड़ गये हैं
पनघट, चौपालें, चरवाहे
दंशित है निस्तब्ध पलों से
अलगोजा चुप ही रह जाये

नये चलन ने बोये तो हैं बीज बबूलों के गमलों में
फिर भी अभिलाषा है इनमें पुष्पित हो गुलाब खिल जाये

उड़ती हुई कल्पनाओं का
पाखी है जहाज का पंछी
हर सरगम को निगल गई है
अपनी धुन में बजती वंसी
क्षितिज चौखटों पर आ ठहरा
शहतीरें नक्षत्र बन गई
सम्बन्धों के अनुबन्धों में
डोरी डोरी रार ठन गई

अंगनाई में शिला जोड़ कर पर्वत एक बना तो डाला
और अपेक्षा बिना किसी श्रम के यह खुद ही हो तिल जाए

दिन का माली बेचा करता
नित्य सांस की भरी टोकरी
आखें काटा करतीं रातें
ले सपनों की छुरी भोंथरी
आशंका की व्याधि घेर कर
रहती सोचों की हर करवट
कोई अंतर ज्ञात न होता
क्या मरघट है क्या वंशीवट

भीड़ भरे इस शून्य विजन में भटक रहे इक यायावर की
केवल आस यही है इक दिन कहीं नीड़ कोई मिल जाए

4 comments:

Padm Singh said...

कैद हो गया है कमरों की
सीमाओं में आकाशी मन
सब के अर्थ एक जैसे हैं
कार्तिक फ़ागुन, भादों सावन
शब्दकोश से बिछुड़ गये हैं
पनघट, चौपालें, चरवाहे
दंशित है निस्तब्ध पलों से
अलगोजा चुप ही रह जाये

नये चलन ने बोये तो हैं बीज बबूलों के गमलों में
फिर भी अभिलाषा है इनमें पुष्पित हो गुलाब खिल जाय

वर्तमान परिप्रेक्ष्य की अद्भुद रचना

निर्मला कपिला said...

कोई अंतर ज्ञात न होता
क्या मरघट है क्या वंशीवट

भीड़ भरे इस शून्य विजन में भटक रहे इक यायावर की
केवल आस यही है इक दिन कहीं नीड़ कोई मिल जाए
आशा ही जीवन है। सुन्दर रचना के लिये बधाई।

praveen pandit said...

टिप्पणी के लिए कभी अक्षर भी इकट्ठे नहीं कर पाता राकेश जी _बस , आपका लिखा गुन गुनाता रहता हूँ --बार बार |

प्रवीण पाण्डेय said...

निश्चय ही मिलेगा, आस बनाये रखिये।

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