प्रार्थना कर थकी छन्द की भूमिका
मुक्तकों ने कई बार आवाज़ दी
दोहे दस्तक लगाते रहे द्वार पर
सोरठे बन गये शब्द के सारथी
चन्द चौपाईयाँ चहचहाती रहीं
गुनगुनाती रही एक गम की गज़ल
थे सवैये प्रतीक्षा सजाये खड़े
बँध गया लय में अतुकान्त भी एक पल
भावना सिन्धु सूखा भरा ही नहीं
गीत कोई कलम से झरा ही नहीं
जो अलंकार थे अल्पना बन गये
भित्तिचित्रों में संवरी रही व्याकरण
देहरी रोलियों अक्षतों से सजी
कुछ अलग सा किये जा रही आचरण
पंथ जितने सुपरिचित रहे खो गये
दृष्टि का दायरा संकुचित हो गया
एक पल नाम जिस पर कभी था लिखा
वह न दिख पाया शायद कहीं खो गया
संचयित कोष जो था रखा पास में
वह कसौटी पे उतरा खरा ही नहीं
सांझ जब भी ढली नैन के गांव में
नींद आकर बजाती रही बांसुरी
तारकों की गली में भ्टकती रही
कोई संवरी नहीं स्वप्न की पांखुरी
याद के दीप जल तो गये अनगिनत
रोशनी वर्त्तिका में सिमट रह गई
जो सृजनशीलता है, कहीं खो गई
बात ये लेखनी से मसी कह गई
कल्पना अश्व अड़ कर खड़ा मोड़ पर
एड़ कितनी लगाईं बढ़ा ही नहीं
सांस करती तकाजा रही रात दिन
ज़िन्दगी उनकी मज़दूरियों को भरे
चक्रवॄद्धि हुआ ब्याज बढ़ता रहा
मूल तो हो रहा पीढियों के परे
हम थे असमर्थता की ध्वजायें लिय
बद्ध सीमाओं में छटपटाते रहे
और दिनमान सूखे हुए पात से
वर्ष की शाख से टूट जाते रहे
जो बही में लिखा वक्त ने, नाम था
देखा उसमें जमा था जरा भी नहीं
केवल एक तुम्हीं हो कारण
सरगम की सीमा ने अपनी सीमा तुम्हें देख कर ,मानी
कहा आठवें सुर की संरचना का एक तुम्ही हो कारण
रूप न कर पाई वाणी जब सातों सुर लेकर के वर्णित
शब्दों के अनथके प्रयासों ने केवल असफ़लता पाई
लहरों ने रह रह कर छेड़ी जलतरंग की मधुर रागिनी
जो कि तुम्हारे थिरके अधरों की रेखा तक पहुँच न पाई
उस पल भाषा ने नव अक्षर रच कर यह सन्देश सुनाया
शायद बिखरे असमंजस का हो पाये अब सहज निवारण
सुर से लेकर शब्दों तक की सीमा में ही गूँजा करती
जागी हुई भोर की परछाईं में घुलती हुई आरती
एक शिल्प के आकारों में कुछ गहराई और भर सके
मंदाकिनियां नभ से आकर प्राची के हैं पग पखारती
किन्तु शिल्प में ढले खंड भी पाषाणों के कह देते हैं
संभव नहीं तुम्हारे अंशों जितना भी पायें विस्तारण
प्रतिबिम्बित हो बरखा की बून्दों से किरन धूप की कोई
खींचा करती रंग पिरोकर चित्र कामना के, अम्बर में
सतरंगी पुष्पित कमान की प्रत्यंचा के सिरे थाम कर
आस बनाती तुम जैसी हो अभिलाषायें भर कर कर में
लेकिन रंगों का फ़ीकापन हो असहाय समर्पित होता
नये रंग के बीज मंत्र का तुमसे ही होता उच्चारण
माँ शारदा के चरणों में सादर नमन
श्वेत पत्रों से पंकज के फिसली हुई ओस की बूँद ढल स्याहियों में गई
बीन के तार के कम्पनों से छिटक एक सरगम आ सहसा कलम बन गई
फिर वरद हस्त आशीष बन उठ गया बारिशें अक्षरों की निरंतर हुईं
शब्द की छंद की माल पिरती हुई आप ही आप आ गीत तब बन गई.
माँ शारदा के चरणों में सादर नमन
बीन के तार के कम्पनों से छिटक एक सरगम आ सहसा कलम बन गई
फिर वरद हस्त आशीष बन उठ गया बारिशें अक्षरों की निरंतर हुईं
शब्द की छंद की माल पिरती हुई आप ही आप आ गीत तब बन गई.
माँ शारदा के चरणों में सादर नमन
आँगन हो गया पराया
जकड़े हुए हमें अपनी कुंडलियों में यादों के विषधर
रजनी गंधा जहां महकती थी आँगन हो गया पराया
जीवन की सीमाओं पर अ
पौधे उगे नागफ़नियों के
सिंचित किये दूध से हमने
उपजे होकर फ़ेनिल सपने
लहरें उमड़ी निगल गईं हैं
नावें सब कोमल भावों की
और तीर हैं फ़न फ़ैलाये
तत्पौर हुए साध को डँसने
पायल की हर इक थिरकन पर उठने लगीं उंगलियां जग क
लेकिन क्या घुँघरू ने कहना चाहा कोई समझ न पाया
पग डगमग हैं निष्ठाओं क
बैसाखी पर नैतिकतायें
मूल्यों की परिभाषायें अब
सुबह शाम नित बदला करतीं
किरणों पर शीशे रख कर जो
रंगा सोच कर चित्र बनेगा
उसमें एक अकेली पीड़
सात रंग में सजी संवरती
तारों से उठती सरगम में सभी तलाशे रागिनियों को
लेकिन तार शब्द जो बोले उनको कोई नहीं सुन पाया
किसका आधिपत्य कितना है
किस पर कब निर्धारित होता
आज पास में जो है अपना
कल है संभव नजर न आये
बदल रहे मौसम की मर्जी
किस दिन क्या वह रूप संवार
भादों बने मरुथली, कार्तिक
संभव है सावन बरसाये
कभी कभी ऐसा लगता है छाई हुई धुन्ध को चीरूँ
और पुन: खड़काऊँ साँकल उसकी द्वार न जो खुल पाया
उत्तरदायित्वों के शव पर
कोई नहीं बहाता आँसू
आक्षेपों के तीर निरन्तर
इनदूजे पर छोड़े जाते
अपनी सुविधा वाली राहे
चुन कर सब ही बैठ गये हैं
दोषारोपण किया राह पर
अगर न मंज़िल का पथ पाते
यों चरित्र हमको अवाक इक दर्शक का ही मिला हुआ है
और नयन ने जो कुछ कहना चाहा कोई नहीं पढ़ पाया
रजनी गंधा जहां महकती थी आँगन हो गया पराया
जीवन की सीमाओं पर अ
पौधे उगे नागफ़नियों के
सिंचित किये दूध से हमने
उपजे होकर फ़ेनिल सपने
लहरें उमड़ी निगल गईं हैं
नावें सब कोमल भावों की
और तीर हैं फ़न फ़ैलाये
तत्पौर हुए साध को डँसने
पायल की हर इक थिरकन पर उठने लगीं उंगलियां जग क
लेकिन क्या घुँघरू ने कहना चाहा कोई समझ न पाया
पग डगमग हैं निष्ठाओं क
बैसाखी पर नैतिकतायें
मूल्यों की परिभाषायें अब
सुबह शाम नित बदला करतीं
किरणों पर शीशे रख कर जो
रंगा सोच कर चित्र बनेगा
उसमें एक अकेली पीड़
सात रंग में सजी संवरती
तारों से उठती सरगम में सभी तलाशे रागिनियों को
लेकिन तार शब्द जो बोले उनको कोई नहीं सुन पाया
किसका आधिपत्य कितना है
किस पर कब निर्धारित होता
आज पास में जो है अपना
कल है संभव नजर न आये
बदल रहे मौसम की मर्जी
किस दिन क्या वह रूप संवार
भादों बने मरुथली, कार्तिक
संभव है सावन बरसाये
कभी कभी ऐसा लगता है छाई हुई धुन्ध को चीरूँ
और पुन: खड़काऊँ साँकल उसकी द्वार न जो खुल पाया
उत्तरदायित्वों के शव पर
कोई नहीं बहाता आँसू
आक्षेपों के तीर निरन्तर
इनदूजे पर छोड़े जाते
अपनी सुविधा वाली राहे
चुन कर सब ही बैठ गये हैं
दोषारोपण किया राह पर
अगर न मंज़िल का पथ पाते
यों चरित्र हमको अवाक इक दर्शक का ही मिला हुआ है
और नयन ने जो कुछ कहना चाहा कोई नहीं पढ़ पाया
हर पल साथ रहे तुम मेरे
ओस में डूब कर फूल की पंखुड़ी भोर की इक किरण को लगी चूमने
गंध फिर तितलियों सी हवा में उड़ी, द्वार कलियों के आकर लगी घूमने
बात इतनी हुई एक पत्ता कहीं आपके नाम का स्पर्श कर आ गया
यों लगा आप चलने लगे हैं इधर, सारा उपवन खुशी से लगा झूमने
xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx
पतझड़ के पहले पत्ते के गिरने की आहट से लेक
अंकुर नये फ़ूटने के स्वर तक तुम साथ रहे हो मेरे
जब जब ढलती हुई सांझ ने अपना घूँघट जरा निकाला
चन्द्रज्योत्सना वाले मुख पर इक झीना सा परदा डाला
उड़ी धुन्ध के धुंधुआसे दर्पण में चित्र संवारे मैने
और ओढ़नी से तारों की बिन्दु बिन्दु को रखा संभाला
बढ़ते हुए निशा के पथ में मैने रखा हाथ वह थामे
जिसकी शुभ्र कलाई छूकर अस्त हुए स्वयमेव अंधेरे
दिन का दीपक जला जिस घड़ी प्राची की पूजा थाली में
गंध उगाने लगी फूल जब सूखे कीकर की डाली में
दोपहरी आचमन कर गई बही धार के गंगाजल का
और तीसरा पहर अटक कर रहा पीतवर्णी बाली में
तब तब बन कर शलभ रहा मैं साथ ज्योति की अँगड़ाई के
नहीं मेघ की परछाईं फिर डाल सकी आंगन में डेरे
गति के चलते हुए चक्र में कोंपल फिर उगती झर जाती
और शेष हो रह जाती है एक बार जल कर के बाती
एक बार उद्गम से निकला नहीं लौटता कोई वापिस
और बात शब्दों में ढल कर बचती नहीं खर्च हो जाती
लेकिन साथ तुम्हारा मेरे संचय की इक अक्षय निधि है
तॄण भी एक न कम हो पाता बीते संध्या और सवेरे
गंध फिर तितलियों सी हवा में उड़ी, द्वार कलियों के आकर लगी घूमने
बात इतनी हुई एक पत्ता कहीं आपके नाम का स्पर्श कर आ गया
यों लगा आप चलने लगे हैं इधर, सारा उपवन खुशी से लगा झूमने
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पतझड़ के पहले पत्ते के गिरने की आहट से लेक
अंकुर नये फ़ूटने के स्वर तक तुम साथ रहे हो मेरे
जब जब ढलती हुई सांझ ने अपना घूँघट जरा निकाला
चन्द्रज्योत्सना वाले मुख पर इक झीना सा परदा डाला
उड़ी धुन्ध के धुंधुआसे दर्पण में चित्र संवारे मैने
और ओढ़नी से तारों की बिन्दु बिन्दु को रखा संभाला
बढ़ते हुए निशा के पथ में मैने रखा हाथ वह थामे
जिसकी शुभ्र कलाई छूकर अस्त हुए स्वयमेव अंधेरे
दिन का दीपक जला जिस घड़ी प्राची की पूजा थाली में
गंध उगाने लगी फूल जब सूखे कीकर की डाली में
दोपहरी आचमन कर गई बही धार के गंगाजल का
और तीसरा पहर अटक कर रहा पीतवर्णी बाली में
तब तब बन कर शलभ रहा मैं साथ ज्योति की अँगड़ाई के
नहीं मेघ की परछाईं फिर डाल सकी आंगन में डेरे
गति के चलते हुए चक्र में कोंपल फिर उगती झर जाती
और शेष हो रह जाती है एक बार जल कर के बाती
एक बार उद्गम से निकला नहीं लौटता कोई वापिस
और बात शब्दों में ढल कर बचती नहीं खर्च हो जाती
लेकिन साथ तुम्हारा मेरे संचय की इक अक्षय निधि है
तॄण भी एक न कम हो पाता बीते संध्या और सवेरे
भाषा नयन की लिख रहा हूँ
चाहता हूँ मैं लिखूँ कुछ प्रीत के नूतन तराने
भाव में डूबे हुए कुछ बिम्ब ले लेकर सुहाने
किन्तु वर्णन न्यायसंगत हो नहीं पाता तनिक भी
शब्द जितने पास मेरे, हो चुके हैं सब पुराने
इसलिये अब शब्द बिन भाषा नयन की लिख रहा हूँ
आईना हूँ आपको अपने सरीखा दिख रहा
खींचता हूँ आज रेखाचित्र मैं नीले गगन पर
टाँकत हूँ भावना की कूचियाँ लेटे पवन पर
गंध की उमड़ी हुई जो लहर में सिमटे हुए हैं
रंग भरता हूँ वही मैं एक कलिका के बदन पर
उड़ रही इक कल्पना का थाम कर आभास झीना
मैं क्षितिज पर बिन किसी आधार के ही टिक रहा हूँ
ढाल; देता हूँ कलम को अब भवों की भंगिमा में
शब्द्कोशों को समाहित कर नयन की नीलिमा में
धड़कनों में बुन रहा हूँ मैं अधर की थरथराहट
घोलता अभिव्यक्ति चेहरे पर उभरती अरुणिमा में
भाव यूँ तो गूढ़ हूँ मैं, किन्तु परिभाषित रहा हूँ
आईना हूँ आपको अपने सरीखा दिख रहा हूँ
भाव में डूबे हुए कुछ बिम्ब ले लेकर सुहाने
किन्तु वर्णन न्यायसंगत हो नहीं पाता तनिक भी
शब्द जितने पास मेरे, हो चुके हैं सब पुराने
इसलिये अब शब्द बिन भाषा नयन की लिख रहा हूँ
आईना हूँ आपको अपने सरीखा दिख रहा
खींचता हूँ आज रेखाचित्र मैं नीले गगन पर
टाँकत हूँ भावना की कूचियाँ लेटे पवन पर
गंध की उमड़ी हुई जो लहर में सिमटे हुए हैं
रंग भरता हूँ वही मैं एक कलिका के बदन पर
उड़ रही इक कल्पना का थाम कर आभास झीना
मैं क्षितिज पर बिन किसी आधार के ही टिक रहा हूँ
ढाल; देता हूँ कलम को अब भवों की भंगिमा में
शब्द्कोशों को समाहित कर नयन की नीलिमा में
धड़कनों में बुन रहा हूँ मैं अधर की थरथराहट
घोलता अभिव्यक्ति चेहरे पर उभरती अरुणिमा में
भाव यूँ तो गूढ़ हूँ मैं, किन्तु परिभाषित रहा हूँ
आईना हूँ आपको अपने सरीखा दिख रहा हूँ
सात पग साथ मिल तुम मेरे जो चले
धूप के चन्द छींटे मिलें साध ये
एक लिपटी हुई थी सदा ही गले
मिल गई दोपहर हमको बैसाख की
सात पग साथ मिल तुम मेरे जो चले
चाँदनी का पता पूछते पूछते
रात आती रही रात ढलते रह
एक भोली किरण पंथ को भूल कर,
आ इधर जायेगी आस पलती रही
बन के जुगनू सितारे उतरते हुए
राह को दीप्त करते रहे मोड़ पर
सांझ को नित्य ही कातती रात थी,
अपना चरखा वहीं चाँद पर छोड़कर
यों लगा सांझ भी चाँदनी हो ग
रात की मांग में जड़ सितारे गये
भोर के दीप फिर जगमगाने लगे
तय किये हमने मिल जब सभी फ़ासले
सिन्धु के तीर पर मैं बिछा था हुआ
पग परस के लिये आतुरा रेत सा
सीपियों का निमंत्रन अधूरा रहा
शंख का एक ही शेष अवशेष था
मोतियों सी भरी एक थाली लिये
तुम उमड़ती हुई बन लहर आ गये
बात तट से तरंगे कभी जो करीं
तुम उन्हें रागिनी में पिरो गा गये
यों मिलन की बजी जलतरंगे नधुर
रागमय हो गई प्राण की बांसुरी
पंचियों के परों से बरसते हुए
सुर नये आ गये ताल में फिर ढले
तुलसियों पर जले दीपकों से जुडी
मन्नतें एक वरदान में ढल गई
साध जो सांझ की वन्दना में घुली
एक आशीष बन शीश पर खिल गई
चातकी प्यास थी एक ही बूँद की
स्वाति का एक सावन उमड़ आ
एक पांखुर उठाने बढे हाथ थे
बाह में पूर्ण मधुवन सिमट आ गया
डोर बरगद पे बाँधी, बनी ओढ़नी
आस ने जो रखे, वे कलश भर गये
छांह में पीपलों की संवरने लगे
फिर वही पल रहे जो थे मंडवे तले
एक लिपटी हुई थी सदा ही गले
मिल गई दोपहर हमको बैसाख की
सात पग साथ मिल तुम मेरे जो चले
चाँदनी का पता पूछते पूछते
रात आती रही रात ढलते रह
एक भोली किरण पंथ को भूल कर,
आ इधर जायेगी आस पलती रही
बन के जुगनू सितारे उतरते हुए
राह को दीप्त करते रहे मोड़ पर
सांझ को नित्य ही कातती रात थी,
अपना चरखा वहीं चाँद पर छोड़कर
यों लगा सांझ भी चाँदनी हो ग
रात की मांग में जड़ सितारे गये
भोर के दीप फिर जगमगाने लगे
तय किये हमने मिल जब सभी फ़ासले
सिन्धु के तीर पर मैं बिछा था हुआ
पग परस के लिये आतुरा रेत सा
सीपियों का निमंत्रन अधूरा रहा
शंख का एक ही शेष अवशेष था
मोतियों सी भरी एक थाली लिये
तुम उमड़ती हुई बन लहर आ गये
बात तट से तरंगे कभी जो करीं
तुम उन्हें रागिनी में पिरो गा गये
यों मिलन की बजी जलतरंगे नधुर
रागमय हो गई प्राण की बांसुरी
पंचियों के परों से बरसते हुए
सुर नये आ गये ताल में फिर ढले
तुलसियों पर जले दीपकों से जुडी
मन्नतें एक वरदान में ढल गई
साध जो सांझ की वन्दना में घुली
एक आशीष बन शीश पर खिल गई
चातकी प्यास थी एक ही बूँद की
स्वाति का एक सावन उमड़ आ
एक पांखुर उठाने बढे हाथ थे
बाह में पूर्ण मधुवन सिमट आ गया
डोर बरगद पे बाँधी, बनी ओढ़नी
आस ने जो रखे, वे कलश भर गये
छांह में पीपलों की संवरने लगे
फिर वही पल रहे जो थे मंडवे तले
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