हमने पट नैन के हर रोज खुले छोड़े हैं
चाँदनी रात नये स्वप्न लिये आयेगी
होठ की गोख पे डाली नहीं चिलमन हमने
कोई सरगम ढली शब्दों में उतर आयेगी
आस खिड़की पे खड़ी दिल की, गगन से आकर
कोई बदली किसी पाजेब से टकरायेगी
और तारों की किरन पर से फ़िसलती यादें
बूँद बरखा की लिये साथ चली आयेंगी
गुनगुना उठेंगी कमरे में टँगीं तस्वीरें
पाँव क अलते को छू देहरी सँवर जायेगी
कोई धानी सी चु्नर हाथ हवा का पकड़े
मेरी आंखों के दहाने पे लहर जायेगी
मगर ये हो न सका, स्वप्न नहीं लाई थी
रात आई थी मगर आई उबासी लेती
पंथ फ़ागुन ने बुहारा था राग गाते हुए
बात उसकी न समझ पाई, रही चुप चैती
और पाजेब के घुँघरू भी गये टूट बिखर
तान बदली ने सुनाई तो झनझनाये नहीं
पाहुने यूँ तो बहुत द्वार पे आ आ के रुके
जिनकी चाहत रही दहलीज को, वे आये नहीं
पाहुने आये नहीं मांग लिये सूनी सी
देहरी बैठी ही रहीं श्वेत पहन कर साड़ी
आज भी ताकती हैं सूनी कलाई उसकी
एक कंगन ने जो चूनर पे बूटियाँ काढ़ीं
3 comments:
ये तो नहीं जानती की ये कौन सा छंद विधान है. सुबह पढ़ा तो लगा अरे गुरुजी ने आज क्या लिखा. शाम को लिखने ही वाली थी कि गुरुजी ये शायद ३ साल में दूसरी बार हो रहा है कि आपके गीत की धुन समझ नहीं आयी...पर फ़िर एक बार और निगाह डाली तो जैसे "Eureka!"... धुन, अर्थ,शैली सब समझ आ गए.
सुन्दर लेखन!
कुछ बिम्ब बेजोड़:
"होठ की गोख पे डाली नहीं चिलमन हमने
कोई सरगम ढली शब्दों में उतर आयेगी"
"गुनगुना उठेंगी कमरे में टँगीं तस्वीरें"
"कोई धानी सी चु्नर हाथ हवा का पकड़े
मेरी आंखों के दहाने पे लहर जायेगी"
"रात आई थी मगर आई उबासी लेती"
"पंथ फ़ागुन ने बुहारा था राग गाते हुए
बात उसकी न समझ पाई, रही चुप चैती"
"पाहुने आये नहीं मांग लिये सूनी सी
देहरी बैठी ही रहीं श्वेत पहन कर साड़ी
आज भी ताकती हैं सूनी कलाई उसकी
एक कंगन ने जो चूनर पे बूटियाँ काढ़ीं"
सादर...
स्वप्न नहीं होते साकार,
बढ़ते जाने किस आकार।
आपके ब्लाग पर आकर बहुत अच्छा लगा। सभी रचनाएं बहुत अच्छी लगीं। फालो करने का प्रयास किया परंतु आपके ब्लाग पर लिंक ठीक से नहीं दिख रहा है। शायद स्लो कनेक्शन के कारण होगा। बहुत ही परिपक्व रचनाएं है। बधाई। यदि समय हो तो मेरे ब्लाग पर आइए और इस नए ब्लागर का उत्साहवर्द्धन कीजिए।
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